Wednesday, 10 April 2013

समय चेतने और चेतावनी देने का

नि:संदेह राजनीति ही अर्थनीति को तय करती है। विशेषकर लोकतंत्र में ये अत्यंत आवश्यक हो जाता है किंतु जब वोटबैंक की राजनीति, बाजार और अर्थतंत्र को इस हद तक प्रभावित करने लगे कि सामान्य जनजीवन पर नकारात्मक प्रभाव हो और भुगतान संतुलन में संकट की स्थिति आ जाये तो ये आर्थिक नहीं बल्कि प्रशासनिक विफलता भी है। स्मरण हो कि 1989-90 में भारत के सामने जो आर्थिक संकट उत्पन्न हुआ था उसके लिए चंद्रशेखर सरकार को भारतीय रिजर्व बैंक में रखे सोने के भंडार को बैंक आफ इंग्लैंड में गिरवी रखना पड़ा था। इसके बाद अपमानजनक शर्तों पर इंटरनेशनल मानेटरी फंड से ऋण तो मिला लेकिन उसके बाद देश आर्थिक संकट की चुनौती से पार पाने में सफल भी रहा और उसने संभावनाओं के द्वार भी खोले।

24  जुलाई 1991 को नई आर्थिक और औद्योगिक नीति की घोषणा तत्कालीन वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने प्रधानमंत्री एन. नरसिम्हराव के नेतृत्व वाली सरकार के दौरान की किंतु दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति ये है कि वर्तमान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को जब सरकार का मुखिया बनने का अवसर वर्ष 2004 में हासिल हुआ तब से पीएम के तौर पर ये  उनका दूसरा कार्यकाल है और अपने इन दो कार्यकालों में वह वित्तीय प्रशासक के रूप में काम करने में नाकाम रहे। उन्हें एक लंबा और सुनहरा अवसर हासिल हुआ लेकिन इसके बावजूद भारत की आर्थिक स्थिति गंभीर है और ये चिंता का विषय है।

एफआरबीएम अधिनियम के लक्ष्यों को प्राप्त नहीं किया जा सका है। राजकोषीय घाटा बेतहाशा बढ़ा। भ्रष्टाचार के अनेक मामले सामने आये। लोकलुभावन नीतियों परअनावश्यक और अत्यधिक धन खर्च किया गया और भारत को महज एक उपभोक्ता बाजार में बदल दिया गया। ये आर्थिक नहीं बल्कि राजनीतिक फैसला था, इसलिए सवाल ये है कि इस समस्या से दो चार कैसे किया जाये क्योंकि इसके लिए जितना जिम्मेदार केंद्र है उतना ही राज्यों का कुप्रबंधन जवाबदेह है। अगर समग्र प्रशासनिक आर्थिक सुधार लागू नहीं किये जाते तो भारत निश्चित रूप से गंभीर आर्थिक संकट की ओर तेजी से बढ़ रहा है।

मौजूदा आर्थिक स्थिति के चलते न केवल फिर से भुगतान संतुलन का संकट पैदा हो गया है बल्कि राजकोषीय प्रबंधन से जुड़ी समस्याएं भी सामने आई हैं और ये आर्थिक विफलता से कहीं ज्यादा राजनीतिक और प्रशासनिक विफलता का संकेत देती है।जब मवाद गहरे पैठा हो तो शल्यक्रिया करनी ही पड़ती है,तब छोटी मोटी औषधियों  से काम नहीं चलता। आज भारत की भी इसी तरह की शल्यक्रिया करने की आवश्यकता है। 
जिसके लिए पांच क्षेत्रों में गंभीर और कठोर कदम उठाने होंगे-


1. सामाजिक-आर्थिक अध:संरचना का विकास 
2. लोकलुभावन और गैर जरूरी योजनाओं में कटौती
3. केंद्र और राज्य सरकार के बजट पर पर्याप्त और प्रभावी नियंत्रण 
4. कर के दायरे में अधिकाधिक लोगों को लाना
5. नौकरशाही में सुधार और उसके आकार को दुरुस्त करना  

ब्रिक्स, जी- 60 या इस प्रकार अनेक क्षेत्रीय मंचों में भारत की गौरवपूर्ण स्थिति लगातार महत्वहीन होती जायेगी। इसलिए ये कुछ करने का समय है न कि सिर्फ चेतने  और चेतावनी देने का। जब तक ये कदम उठाये नहीं जाते, उभरती हुए भारतीय आर्थिक महाशक्ति का सपना दिवास्वप्र ही रह जायेगा।  

Sunday, 10 March 2013

बजट के साथ इसका असरदार क्रियान्वयन भी जरूरी


बजट महज आंकड़ों का लेखाजोखा नहीं बल्कि सामाजिक-आर्थिक विकास का उपकरण भी होता है। 1860 में तत्कालीन वायसराय  के कार्यकारी  अधिकारी  जेम्स विल्सन ने भारत में पहला बजट बनाया था..तब से लेकर अब तक भारत में 80 से अधिक बजट पेश किये जा चुके हैं। पिछले 150 सालों में बजट की  प्रक्रिया भी कई बदलावों से गुजरी..ये पहले अंशकालिक हुआ करता था..फिर पूर्णकालिक बना। लेकिन देश के आजाद होने से लेकर अब तक  बजट आमतौर पर राजनीतिक घोषणापत्र ज्यादा रहा है, ये देश की जनाकांक्षाओं और अर्थव्यवस्था को जागृत करने वाला दस्तावेज नहीं बन सका। यद्यपि विकासशील देश के रूप में बजट राष्ट्र में संजीवनी का महत्व रखता है।  इस बार भी बजट पेश किये जाने से पहले इससे तमाम अपेक्षाएं थीं, साथ ही ये उम्मीद भी कि ये बजट गंभीर आर्थिक हिचकोले लेते हुए इस समय में ऐसा बजट होगा, जिससे देश के आर्थिक परिदृश्य में सुधार के दूरगामी परिणाम होंगे, लेकिन इस बजट ने निराश ज्यादा किया है। 
अगर बजट के आंकड़ों में नहीं जाएं और तथ्य, आधार और सैद्धांतिक चर्चा की कसौटियों पर बजट को कसें तो इससे ये उम्मीदें थीं......

1. इसके जरिए आर्थिक सुदृढता का प्रयास किया जायेगा
2. ये रोजगारपरक होगा, इससे ज्यादा रोजगार सृजित हो सकेंगे
3. ये बजट कुछ ऐसा होगा, जिससे बढ़ती  मुद्रास्फीति पर नियंत्रण हो सकेगा
4. उद्योग और आधारभूत ढांचे को प्रोत्साहित करने वाला होगा
5. भारत की शर्तों पर प्रत्यक्ष विदेशी निवेश यानि एफडीआई को  प्रोत्साहन देगा...

इसमें वित्तमंत्री ने दो संकेतों पर बेशक अमल किया। हो सकता है कि देखने में ये बजट  उम्मीदें जगाने वाला लगे लेकिन  इसके अधिकांश हिस्से में केवल प्रावधान ही ज्यादा किये गये हैं।  आर्थिक सुधारों के नाम पर राजनीतिक निहितार्थों की चाशनी में इसे परोसा गया है। मसलन इस बजट में जन कल्याणकारी योजनाओं पर बहुत जोर देने की बात कही गई है..मसलन  मनरेगा, अल्प संख्यक कल्याणकारी, अनुसूचित जाति और जनजाति को ज्यादा धन आवंटित बढ़ाने की  घोषणाएं की गई हैं, इसी तरह से कुछ और योजनाओं में लंबी चौड़ी घोषणाएं की गईं। यहां ये समझ लेना जरूरी है कि केवल ये सब कर देने भर से जनहितैषी बजट नहीं बन जाता। मूल समस्या तो इसके क्रियान्वयन की है। जब तक लक्षित वर्ग तक योजनाओं का लाभ पूरी तरीके से नहीं पहुंचे तो ऐसे बजट का क्या मतलब? बल्कि इनके मद में धन आवंटन बढाने से लूट-खसोट और भ्रष्टाचार को ही बढावा मिलेगा..लक्षित वर्ग का हाल वही का वही रहेगा। गौरतलब है कि हमारे पूर्व प्रधानमंत्री  स्वर्गीय राजीव गांधी, मौजूदा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कांग्रेस के युवा नेता राहुल गांधी भी स्वीकार कर चुके हैं कि तमाम योजनाओं  में लक्षित वर्ग तक पहुंचने वाले फायदों के तहत एक रुपये में महज दस पैसा ही वांछितों तक पहुंच पाता है।

ऐसे में बजट में लंबी चौड़ी घोषणाओं की बजाये जरूरत इनके क्रियान्वयन के लिए आर्थिक, प्रशासनिक, पुलिस सुधारों की है..और ये सुनिश्चित करने की है कि बजट का फायदा  वाकई लक्षित वर्ग तक हो और देश के विकास में साफ साफ नजर भी आये। हालत ये है कि देश की जनता को जन कल्याणकारी योजनाओं का लाभ कम मिल रहा है बल्कि धनराशि में लूट ज्यादा हो रही है, दुर्भाग्य से इसे बजट बनाये जाते समय ध्यान में नहीं रखा जाता। गौरतलब है कि अर्थव्यवस्था के लिए सुशासन बड़ी कुंजी है। वर्ष 2014 के चुनावों के पहले  अपेक्षा थी कि सरकार भ्रष्टाचार पर लगाम लगायेगी, महंगाई कम करेगी और सुशासन पर ध्यान देगी, लेकिन ऐसा दिख नहीं रहा। हाल ही में कैग की रिर्पोट के जरिए किसानों  को कर्ज माफी में बड़े घोटाले का एक अन्यमामला सामने आया है। कैग रिपोर्ट कह रही है कि इसमें करोड़ों-अरबों  की गड़बडिय़ां हुई हैं। इस स्कीम के तहत वितरित 52,500 करोड़ रुपयों में कम से कम 20 फीसदी राशि के इस्तेमाल को लेकर गंभीर सवाल उठाये गये हैं। 

अब जरूरत  दूरगामी सोच, कठोर वित्तीय नियंत्रण, सुशासन की है और यही सरकार का मूल कर्म और धर्म होना चाहिए। 

Sunday, 3 February 2013


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Thursday, 13 December 2012

मोदी का तिलिस्म - यथार्थ और मिथक

निश्चित रूप से पिछले करीब एक दशक और दो चुनावों से गुजरात में स्थिर और विकासशील सरकार देकर नरेंद्र मोदी ने अपनी क्षमता साबित कर दी है लेकिन अब तीसरी बार चुनावों को बहुमत से जीतकर सत्ता में बरकरार रहने की चुनौती ज्यादा बड़ी है। 
बेशक पिछले एक दशक में मोदी ने वाइब्रेंट गुजरात की एक खास छवि बनाई है, अपने शासनकाल में उन्होंने गुजरात को शाइनिंग की राह पर आगे बढाया है, जिससे उन्हें वाहवाही भी मिली है। ये माना जाने लगा है कि उनमें बेहतर गर्वनेंस की जबदस्त क्षमता है और यही बात फिलहाल उन्हें दूसरे नेताओं से अलग भी कर रही है। उनके गुजरात के विकास मॉडल को उदाहरण के तौर पर पूरे देश में पेश किया जाने लगा है.. लेकिन बहुत सी बातें और भी हैं जो मोदी के बारे में कही जाती रही हैं..इनमें सवाल भी हैं...कहीं न कहीं उन्हें लेकर एक खास सोच भी..
१. क्या मोदी के व्यवहार, सोच और स्वाभाव में बदलाव आया है? क्या वह अब अल्पसंख्यकों को  साथ लेकर चलने को तैयार हैं..मोदी में अपने अब तक के शासनकाल में कभी स्पष्ट तौर पर  नहीं कहा कि अल्पसंख्यकों के प्रति उनकी सोच वास्तव में है क्या? ..वह हमेशा अपने भाषणों में छह करोड़ गुजरातियों की अस्मिता की बात करते हैं..क्या ये कहते समय उनका आशय अल्पसंख्यक गुजरातियों को भी लेकर होता है...क्या वाकई उन्होंने उन्हें जोड़ा है या नहीं?
२. न्यायालय ने उनके दो खास सहयोगियों को गुजरात दंगों की साजिश रचने का दोषी करार दिया है..बेशक इसके छींटे तो उन पर भी पड़े ही हैं. यानि उनका खुद का दामन पाक साफ नहीं कहा जा सकता।
३. खुद उनके राज्य में उनके विरोधियों की संख्या बढती जा रही है। गुजरात बीजेपी में उनके विरोधी कम नहीं। मोदी राज में गुजरात में बीजेपी के सांगठनिक ढांचे का कोई मतलब नहीं रह गया है। वहां बीजेपी का मतलब है नरेंद्र मोदी। अगर मोदी किसी को नहीं चाहते तो उसका गुजरात बीजेपी में बने रहना या उबर पाना मुश्किल है, लिहाजा गुजरात बीजेपी के कई बड़े नेता उनके कारण पार्टी छोड़ चुके हैं...इन विरोधियों के कारण उन्हें लगातार चुनौतियां भी मिलती रही हैं..इस बार ये चुनौती ज्यादा बड़ी है। उनके विरोध में केशुभाई पटेल, राणा से लेकर हाल में विधानसभा चुनावों में खड़ी हुईं हरेन पांड्या की पत्नी जागृति पांड्या तक हैं। कांग्रेस उन्हें हर हाल में घेरना चाहती है और राज्य में विपक्षी पार्टी होने के नाते उसका इसके लिए कोशिश करना स्वाभाविक भी है।
४. खुद राष्ट्रीय स्तर पर उनकी अपनी ही पार्टी में उनकी स्वीकार्यता को लेकर अजीब सी स्थिति है। बीजेपी का एक वर्ग जहां उन्हें राष्ट्रीय राजनीति में लाना चाहता है तो दूसरा वर्ग इसे लेकर शंकित है। उन्हें लगता है कि इससे अल्पसंख्यक मतों का ध्रुवीकरण हो जायेगा, जिससे बीजेपी को नुकसान होगा।
५. एक और सवाल अंतर्राष्ट्रीय स्वीकार्यता का है। हालांकि माना जा रहा है उन्हें लेकर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जो बर्फ जमी हुई थी, वो अब पिघलने लगी है। पिछले दिनों ब्रिटेन के राजदूत खुद उनसे मिलने अहमदाबाद पहुंचे। अमेरिका और यूरोप के दूसरे देश भी अब उनसे संबंध बेहतर करना चाहते हैं। माना जा रहा है कि अगर मोदी अब गुजरात के मुख्यमंत्री बने तो विदेशों से उन्हें व्यापार और द्विपक्षीय सहयोग के लिए आमंत्रण मिलेंगे। 
६. निराशाजनक पहलू ये है कि गुजरात में कृषि विकास दर और मानव विकास सूचकांक में गिरावट आई है। यहां तक कि गुजरात में बच्चों के कुपोषण की खबरें भी आई हैं। गुजरात में उद्योग धंधों का तो विकास हुआ है लेकिन कृषि को लेकर ज्यादा कुछ नहीं किया गया। इस बार वहां मानसून बेहतर नहीं रहा और कृषि पर इसका खराब असर पड़ा ..लिहाजा किसान नाराज है कि मोदी ने दस सालों में उसके लिए खास कुछ नहीं किया है। 
तो ये साफ है कि गुजरात चुनावों में मोदी को इन सारे पहलूओं का सामना करना पडेग़ा या यों कहिये कि ये सारी ही बातें मोदी गुजरात चुनाव अभियान पर असर डालेंगी। यदि इस बार वह सरकार बनाने में सफल रहे तो निश्चित रूप से उनका प्रभाव बढेगा, कद बड़ा होगा, स्वीकार्यता और करिश्मे में भी बढोतरी होगी। इससे ये भी साबित होगा कि पिछले दो चुनावों में उनकी जीत तुक्का या संयोग नहीं थीं। ..लेकिन अगर इन चुनावों में उनका प्रदर्शन आशानुरुप नहीं रहता है तो बीजेपी के आकाओं को सोचना होगा कि राष्ट्रीय राजनीति में विचार और परिवर्तन की जरूरत है। बीजेपी की समस्या ये है कि उसके शीर्ष नेतृत्व में अलगाव बहुत है और सोच-विचार में भी मतैक्य नहीं है। सही बात ये भी है कि बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व को जो हाल फिलहाल है उसे देखकर लगता है कि उन्हें शत्रु की जरूरत नहीं अपने दुश्मन वो खुद हैं।
गुजरात के बाद लोकसभा के वर्ष २०१४ में होने वाले चुनाव चुनौती साबित होंगे..भले ही गुजरात फतेह का सपना पूरा हो जाये।