Wednesday, 24 September 2014
Article on Telangana
तेलंगाना एवं नये राज्यों की मांग
2 जून 2014 को देष के 29वें राज्य के रूप में तेलंगाना के अस्तित्व में आने के बाद देष के भिन्न राज्यों की मांग फिर से जोर से पकड़ने लगी है जो आने वाले विधान सभा चुनाव में और भी अधिक मुखर हो सकती है। 1956 में प्रथम राज्य पुनर्गठन आयोग की सिफारिषों पर आधारित राज्यों के पुनर्गठन से देष के विभिन्न भागों में रहने वाले लोगों की आकांक्षाओं की संतोशजनक पूर्ति नहीं हो सकी तथा भाशायी, मानवीय और सांस्कृतिक विविधताओं के आधार पर राज्यों के पुनः बंटवारे की मांग होने लगी। अनेक राज्यों के पुर्नविभाजन की मांग उठने लगी। ऐसे में भारत की राश्ट्रीय एकता को सुदृढ़ बनाये रखकर राज्यों का विभाजन करना एक गम्भीर चुनौती थी। राज्य पुनर्गठन आयोग की सिफारिषों के लागू होने के पांच वर्शों के भीतर ही अन्य राज्यों के निर्माण के लिए आवाज उठने लगी थी, फलस्वरूप द्विभाशी मुम्बई प्रांत को 1 मई 1961 में गुजराती भाशा गुजरात और मराठी भाशा महाराश्ट्र में विभाजित कर दिया गया। गोवा, दमन और दीव, जो पुर्तगाली उपनिवेष थे और भारत मे यूरोपीय आधिपत्य की अंतिम निषानी थे, को विदेषी षासन से मुक्ति मिलने के उपरान्त 16 दिसंबर 1961 को भारतीय संघ में मिला लिया गया। इस प्रकार इस घटना ने भारतीय संघ के प्रादेषिक एकीकरण को पूर्ण किया था।
पूर्वोŸार भारत में जनजातीय लोगों की अपनी विषिश्ट पहचान बनाये रखने हेतु नवीन राज्यों की मांग के संदर्भ में वहां अनेक नवीन राज्यों का निर्माण किया गया। 1957 में असम का उŸार-पूर्वी भाग अलग कर उसे उŸार-पूर्वी सीमांत एजेन्सी ;छण्म्ण्थ्ण्।ण्द्ध नाम दिया गया। नागा पहाडि़यों का इलाका एक केन्द्र षासित प्रदेष था, और उसे नागा पहाड़ी त्वेनसांग क्षेत्र कहा जाता था। उसे 1961 में पुनः नामकरण करके नागालैण्ड नाम दिया गया और 1 दिसंबर 1963 को राज्य का दर्जा दे दिया गया। मणिपुर को राज्य पुनर्गठन अधिनियम, 1956 के अन्तर्गत एक संघीय प्रदेष का दर्जा दिया गया था, तथा 1972 में उसे संघ के एक पूर्ण राज्य का दर्जा दे दिया गया। मेघालय को असम राज्य के अन्तर्गत ही 2 अप्रैल 1970 को एक स्वायŸाषासी प्रदेष का दर्जा दिया गया। उसे पूर्ण राज्य के रूप में मान्यता 21 जनवरी 1972 को ही मिल सका। त्रिपुरा को 1947 में ही भारतीय संघ में षामिल कर लिया गया था और 1956 में उसे एक केन्द्रषासित प्रदेष का दर्जा मिला। 1972 में उसे एक पूर्ण राज्य का दर्जा प्राप्त हुआ। इस प्रकार 1972 में पूर्वोŸार भारत में तीन नवीन राज्यों का निर्माण हुआ। सिक्किम 1974 में भारत का एक संरक्षित क्षेत्र ;च्तवजमबजवतंजमद्ध बना, और उसके बाद उसे भारत के सह राज्य ;।ेेवबपंजमक ैजंजमद्ध का दर्जा मिला। 14 अप्रैल, 1975 को हुए जनमत संग्रह के परिणामों के आधार पर वह भारत का एक अनन्य हिस्सा बन गया। उŸार-पूर्वी सीमांत एजेंसी ;छण्म्ण्थ्ण्।ण्द्ध को 20 जनवरी 1987 में एक पूर्ण राज्य का दर्जा दे दिया गया और उसका पुनर्नामकरण करके अरूणाचल प्रदेष नाम दिया गया। मिजोरम 1972 तक असम के जिलों में से एक था, परंतु उसी वर्श उŸार-पूर्वी पुनर्गठन अधिनियम के लागू होने के साथ ही उसे एक केन्द्र षासित प्रदेष का दर्जा दिया गया। उसे पूर्ण राज्य का दर्जा 20 जनवरी 1987 को प्रदान किया गया।
दक्षिण भारत में देखा जाय, तो मैसूर राज्य का 1956 में निर्माण हुआ था और कन्नड़ भाशी लोगों की मांग को देखते हुए उसका पुनर्नामकरण करके कर्नाटक कर दिया गया। गोवा, जो 1961 में ही स्वतंत्र हुआ था, उसे 30 मई 1987 को एक राज्य का दर्जा दे दिया गया, परंतु दमन और दीव केन्द्रषासित प्रदेष बने रहे।
देष के उŸार-पष्चिमी भाग में पंजाब, जो एक द्विभाशी राज्य था, को 1 नवंबर 1966 को पंजाबी भाशा राज्य पंजाब और हिन्दी भाशी राज्य हरियाणा में विभाजित कर दिया गया। इस प्रकार हरियाणा के रूप में एक नवीन राज्य का उदय हुआ। साथ ही साथ पंजाब के कुछ पहाड़ी क्षेत्रों को हिमाचल प्रदेष में मिला दिया गया। हिमाचल प्रदेष को पूर्ण राज्य का दर्जा 25 जनवरी 1971 को ही मिला।
नवंबर, 2000 में तीन राज्यों का गठन हुआ। मध्य प्रदेष को विभाजित करके 1 नवंबर 2000 को भारत के 26वें राज्य के रूप में छŸाीसगढ़ राज्य का निर्माण किया गया। इससे जनजातीय लोगों की लम्बे समय से चली आ रही मांग पूरी हो गयी। उŸार प्रदेष के पहाड़ी क्षेत्रों को भी अलग करके 9 नवंबर 2000 को एक नवीन राज्य उŸाराखंड का निर्माण किया गया। यह भारत का 27वां राज्य बना। इस नवीन राज्य की सीमाएं उŸार में चीन के साथ पूर्व में नेपाल के साथ अंतर्राश्ट्रीय सीमाएं भी बनाती हैं। भारत के 28वें राज्य के रूप में झारखंड का निर्माण 15 नवंबर 2000 को बिहार का विभाजन करके किया गया। इस जनजातीय बहुल राज्य में मुख्य रूप से छोटा नागपुर पठार की पर्वतीय भूमि तथा संथाल परगना षामिल था तथा उसकी अपनी विषिश्ट सांस्कृतिक परम्पराएं थी। अभी तक यह भारत का सबसे युवा राज्य था, जो अब तेलंगाना है।
देष में कुछ बिखरे हुए लघु क्षेत्र हैं, जो केन्द्रीय सरकार द्वारा प्रषासित है और केन्द्रषासित प्रदेष के नाम से जाने जाते हैं। उनकी संख्या वर्तमान में सात है- अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह, चंडीगढ़, दादरा एवं नगर हवेली, दमन एवं दीव, दिल्ली, लक्षद्वीप तथा पुडुचेरी।
अतः स्पश्ट है कि देष के 29 राज्यों में से राजस्थान सबसे बड़ा राज्य है जिसका क्षेत्रफल 3,42,239 वर्ग किमी. है। देष के तीन बड़े राज्य राजस्थान, मध्य प्रदेष और महाराश्ट्र मिलकर देष के कुल क्षेत्रफल का 3 प्रतिषत भाग धारण करते हैं। दूसरी ओर गोवा सिर्फ 3,702 वर्ग किमी. क्षेत्रफल के साथ सबसे छोटा राज्य है। असम और अरूणाचल प्रदेष के अपवादों को छोड़कर, पूर्वोŸार भारत के सभी राज्य लघु आकार वाले हैं। प्रषासनिक दृश्टि से उŸार प्रदेष देष का सबसे बड़ा राज्य है जिसमें 75 जिले हैं, जबकि गोवा में सिर्फ 2 जिले हैं। बिहार, छŸाीसगढ़, हरियाणा, हिमाचल प्रदेष, झारखंड, मध्य प्रदेष, उŸार प्रदेष, उŸाराखंड और दिल्ली प्रदेषों में हिन्दी मुख्य भाशा के रूप में प्रयोग की जाती है।
इनके अलावा कुछ और नवीन राज्यों के निर्माण की भी मांग लम्बे समय से चलती रही है। उदाहरण के लिए महाराश्ट्र का विदर्भ क्षेत्र तथा उŸार प्रदेष का पष्चिमी भाग (हरित प्रदेष) तथा पूर्वी भाग (पूर्वांचल), रायलसीमा (आंध्र प्रदेष), उदयाचल (असोम), वृहŸार नागालैण्ड (उŸार-पूर्व), गोरखालैण्ड (पष्चिम बंगाल) इत्यादि की मांग तेज हो रही है परंतु उनका भविश्य देष के भूराजनैतिक दषा पर निर्भर करेगा।
अतः यह उपयुक्त समय है कि जैसे दूसरा प्रषासनिक सुधार आयोग बना, योजना आयोग का अब पुनर्गठन किया जा रहा है तथा संघ-राज्य सम्बन्धों को मजबूत करने के लिए सरकार नई कोषिष और पहल कर रही है, मोदी सरकार के द्वारा दूसरे राज्य पुनर्गठन आयोग का भी निर्माण किया जाये जो क्षेत्रवार नये राज्यों के गठन पर विस्तृत और गंभीरतापूर्वक विचार करे और 2019 के लोकसभा चुनाव के पहले देष को एक मजबूत संघात्मक ढांचा और विकसित राश्ट्र का पारितोशक प्रदान करे।
-डा. प्रत्यूशमणि त्रिपाठी
2 जून 2014 को देष के 29वें राज्य के रूप में तेलंगाना के अस्तित्व में आने के बाद देष के भिन्न राज्यों की मांग फिर से जोर से पकड़ने लगी है जो आने वाले विधान सभा चुनाव में और भी अधिक मुखर हो सकती है। 1956 में प्रथम राज्य पुनर्गठन आयोग की सिफारिषों पर आधारित राज्यों के पुनर्गठन से देष के विभिन्न भागों में रहने वाले लोगों की आकांक्षाओं की संतोशजनक पूर्ति नहीं हो सकी तथा भाशायी, मानवीय और सांस्कृतिक विविधताओं के आधार पर राज्यों के पुनः बंटवारे की मांग होने लगी। अनेक राज्यों के पुर्नविभाजन की मांग उठने लगी। ऐसे में भारत की राश्ट्रीय एकता को सुदृढ़ बनाये रखकर राज्यों का विभाजन करना एक गम्भीर चुनौती थी। राज्य पुनर्गठन आयोग की सिफारिषों के लागू होने के पांच वर्शों के भीतर ही अन्य राज्यों के निर्माण के लिए आवाज उठने लगी थी, फलस्वरूप द्विभाशी मुम्बई प्रांत को 1 मई 1961 में गुजराती भाशा गुजरात और मराठी भाशा महाराश्ट्र में विभाजित कर दिया गया। गोवा, दमन और दीव, जो पुर्तगाली उपनिवेष थे और भारत मे यूरोपीय आधिपत्य की अंतिम निषानी थे, को विदेषी षासन से मुक्ति मिलने के उपरान्त 16 दिसंबर 1961 को भारतीय संघ में मिला लिया गया। इस प्रकार इस घटना ने भारतीय संघ के प्रादेषिक एकीकरण को पूर्ण किया था।
पूर्वोŸार भारत में जनजातीय लोगों की अपनी विषिश्ट पहचान बनाये रखने हेतु नवीन राज्यों की मांग के संदर्भ में वहां अनेक नवीन राज्यों का निर्माण किया गया। 1957 में असम का उŸार-पूर्वी भाग अलग कर उसे उŸार-पूर्वी सीमांत एजेन्सी ;छण्म्ण्थ्ण्।ण्द्ध नाम दिया गया। नागा पहाडि़यों का इलाका एक केन्द्र षासित प्रदेष था, और उसे नागा पहाड़ी त्वेनसांग क्षेत्र कहा जाता था। उसे 1961 में पुनः नामकरण करके नागालैण्ड नाम दिया गया और 1 दिसंबर 1963 को राज्य का दर्जा दे दिया गया। मणिपुर को राज्य पुनर्गठन अधिनियम, 1956 के अन्तर्गत एक संघीय प्रदेष का दर्जा दिया गया था, तथा 1972 में उसे संघ के एक पूर्ण राज्य का दर्जा दे दिया गया। मेघालय को असम राज्य के अन्तर्गत ही 2 अप्रैल 1970 को एक स्वायŸाषासी प्रदेष का दर्जा दिया गया। उसे पूर्ण राज्य के रूप में मान्यता 21 जनवरी 1972 को ही मिल सका। त्रिपुरा को 1947 में ही भारतीय संघ में षामिल कर लिया गया था और 1956 में उसे एक केन्द्रषासित प्रदेष का दर्जा मिला। 1972 में उसे एक पूर्ण राज्य का दर्जा प्राप्त हुआ। इस प्रकार 1972 में पूर्वोŸार भारत में तीन नवीन राज्यों का निर्माण हुआ। सिक्किम 1974 में भारत का एक संरक्षित क्षेत्र ;च्तवजमबजवतंजमद्ध बना, और उसके बाद उसे भारत के सह राज्य ;।ेेवबपंजमक ैजंजमद्ध का दर्जा मिला। 14 अप्रैल, 1975 को हुए जनमत संग्रह के परिणामों के आधार पर वह भारत का एक अनन्य हिस्सा बन गया। उŸार-पूर्वी सीमांत एजेंसी ;छण्म्ण्थ्ण्।ण्द्ध को 20 जनवरी 1987 में एक पूर्ण राज्य का दर्जा दे दिया गया और उसका पुनर्नामकरण करके अरूणाचल प्रदेष नाम दिया गया। मिजोरम 1972 तक असम के जिलों में से एक था, परंतु उसी वर्श उŸार-पूर्वी पुनर्गठन अधिनियम के लागू होने के साथ ही उसे एक केन्द्र षासित प्रदेष का दर्जा दिया गया। उसे पूर्ण राज्य का दर्जा 20 जनवरी 1987 को प्रदान किया गया।
दक्षिण भारत में देखा जाय, तो मैसूर राज्य का 1956 में निर्माण हुआ था और कन्नड़ भाशी लोगों की मांग को देखते हुए उसका पुनर्नामकरण करके कर्नाटक कर दिया गया। गोवा, जो 1961 में ही स्वतंत्र हुआ था, उसे 30 मई 1987 को एक राज्य का दर्जा दे दिया गया, परंतु दमन और दीव केन्द्रषासित प्रदेष बने रहे।
देष के उŸार-पष्चिमी भाग में पंजाब, जो एक द्विभाशी राज्य था, को 1 नवंबर 1966 को पंजाबी भाशा राज्य पंजाब और हिन्दी भाशी राज्य हरियाणा में विभाजित कर दिया गया। इस प्रकार हरियाणा के रूप में एक नवीन राज्य का उदय हुआ। साथ ही साथ पंजाब के कुछ पहाड़ी क्षेत्रों को हिमाचल प्रदेष में मिला दिया गया। हिमाचल प्रदेष को पूर्ण राज्य का दर्जा 25 जनवरी 1971 को ही मिला।
नवंबर, 2000 में तीन राज्यों का गठन हुआ। मध्य प्रदेष को विभाजित करके 1 नवंबर 2000 को भारत के 26वें राज्य के रूप में छŸाीसगढ़ राज्य का निर्माण किया गया। इससे जनजातीय लोगों की लम्बे समय से चली आ रही मांग पूरी हो गयी। उŸार प्रदेष के पहाड़ी क्षेत्रों को भी अलग करके 9 नवंबर 2000 को एक नवीन राज्य उŸाराखंड का निर्माण किया गया। यह भारत का 27वां राज्य बना। इस नवीन राज्य की सीमाएं उŸार में चीन के साथ पूर्व में नेपाल के साथ अंतर्राश्ट्रीय सीमाएं भी बनाती हैं। भारत के 28वें राज्य के रूप में झारखंड का निर्माण 15 नवंबर 2000 को बिहार का विभाजन करके किया गया। इस जनजातीय बहुल राज्य में मुख्य रूप से छोटा नागपुर पठार की पर्वतीय भूमि तथा संथाल परगना षामिल था तथा उसकी अपनी विषिश्ट सांस्कृतिक परम्पराएं थी। अभी तक यह भारत का सबसे युवा राज्य था, जो अब तेलंगाना है।
देष में कुछ बिखरे हुए लघु क्षेत्र हैं, जो केन्द्रीय सरकार द्वारा प्रषासित है और केन्द्रषासित प्रदेष के नाम से जाने जाते हैं। उनकी संख्या वर्तमान में सात है- अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह, चंडीगढ़, दादरा एवं नगर हवेली, दमन एवं दीव, दिल्ली, लक्षद्वीप तथा पुडुचेरी।
अतः स्पश्ट है कि देष के 29 राज्यों में से राजस्थान सबसे बड़ा राज्य है जिसका क्षेत्रफल 3,42,239 वर्ग किमी. है। देष के तीन बड़े राज्य राजस्थान, मध्य प्रदेष और महाराश्ट्र मिलकर देष के कुल क्षेत्रफल का 3 प्रतिषत भाग धारण करते हैं। दूसरी ओर गोवा सिर्फ 3,702 वर्ग किमी. क्षेत्रफल के साथ सबसे छोटा राज्य है। असम और अरूणाचल प्रदेष के अपवादों को छोड़कर, पूर्वोŸार भारत के सभी राज्य लघु आकार वाले हैं। प्रषासनिक दृश्टि से उŸार प्रदेष देष का सबसे बड़ा राज्य है जिसमें 75 जिले हैं, जबकि गोवा में सिर्फ 2 जिले हैं। बिहार, छŸाीसगढ़, हरियाणा, हिमाचल प्रदेष, झारखंड, मध्य प्रदेष, उŸार प्रदेष, उŸाराखंड और दिल्ली प्रदेषों में हिन्दी मुख्य भाशा के रूप में प्रयोग की जाती है।
इनके अलावा कुछ और नवीन राज्यों के निर्माण की भी मांग लम्बे समय से चलती रही है। उदाहरण के लिए महाराश्ट्र का विदर्भ क्षेत्र तथा उŸार प्रदेष का पष्चिमी भाग (हरित प्रदेष) तथा पूर्वी भाग (पूर्वांचल), रायलसीमा (आंध्र प्रदेष), उदयाचल (असोम), वृहŸार नागालैण्ड (उŸार-पूर्व), गोरखालैण्ड (पष्चिम बंगाल) इत्यादि की मांग तेज हो रही है परंतु उनका भविश्य देष के भूराजनैतिक दषा पर निर्भर करेगा।
अतः यह उपयुक्त समय है कि जैसे दूसरा प्रषासनिक सुधार आयोग बना, योजना आयोग का अब पुनर्गठन किया जा रहा है तथा संघ-राज्य सम्बन्धों को मजबूत करने के लिए सरकार नई कोषिष और पहल कर रही है, मोदी सरकार के द्वारा दूसरे राज्य पुनर्गठन आयोग का भी निर्माण किया जाये जो क्षेत्रवार नये राज्यों के गठन पर विस्तृत और गंभीरतापूर्वक विचार करे और 2019 के लोकसभा चुनाव के पहले देष को एक मजबूत संघात्मक ढांचा और विकसित राश्ट्र का पारितोशक प्रदान करे।
-डा. प्रत्यूशमणि त्रिपाठी
Monday, 8 September 2014
Judge becomes Governor
न्यायमूर्ति बने राज्यपाल
केरल में राज्यपाल पद पर पूर्व प्रधान न्यायाधीष पी. सताषिवम की नियुक्ति तकनीकी तौर पर यद्यपि विधि और संविधान के दायरे में है किन्तु फिर भी कई सारे सवाल खड़े होते हैं। आखिर क्यों सर्वोच्च और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीषों को ’कूलिंग आॅफ पीरियड’ के बिना ऐसे पदों पर नियुक्त किया जाता है? और क्यों नियुक्ति में आवष्यक और अपेक्षित खुलेपन, पारदर्षिता और प्रषासनिक षुचिता का अनुपालन नहीं किया गया? हालांकि यह कोई पहली बार नही है जब ऐसे पदों पर सेवानिवृŸा न्यायाधीष, नौकरषाह और सेना के उच्चाधिकारी नियुक्त होते रहे हैं। लेकिन जिस सरकार को ईमानदारी के उच्च मानदंड तय करने है कम से कम उससे ऐसी अपेक्षा नही की जा सकती। अब तक जो कुछ होता आया है उससे कुछ अलग कर दिखाने की मोदी सरकार की प्रतिबद्धता पर इससे प्रष्नचिन्ह लगता है। स्वयं प्रधानमंत्री मोदी ने अपने सार्वजनिक जीवन में ईमानदारी और नैतिकता के जिन मानदंडो को अब तक बनाये रखा है, राज्यपाल की इस नियुक्ति से उस पर निष्चित तौर पर असर पड़ रहा है क्योंकि ऐसा संदेष जा रहा है कि अपने एक वरिश्ठ कैबिनेट सहयोगी को मुकदमें में राहत पहुँचाने के लिए न्यायाधीष सदाषिवम को राज्यपाल पद देकर उपकृत किया गया है। यह गलत और खतरनाक परम्परा है।
यदि सेवाकाल के अन्तिम कार्यदिवसों पर न्यायाधीष सरकार के प्रति इस उम्मीद में नरम पड़ने लगेंगे कि वे इसके बाद महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्ति पा सकेंगे तो न्यायपालिक का नीर-क्षीर विवेक कहाँ जायेगा? जहाँ तक कांग्रेस का सवाल है इन मामलों में उसका अतीत इतना दागदार रहा है और इस प्रकार की नियुक्ति की ऐसे न जाने कितने उदाहरण हैं जिससे इस किताब के पन्ने भी कम पड़ जायेंगे, इसलिए उसके द्वारा विरोध करने का कोई नैतिक और विधिक बल भी नही है लेकिन मोदी सरकार के लिए अवष्य यह चिन्ता का विशय होना चाहिए कि न्यायपालिका की निश्पक्षता और स्वतंत्रता बनाये रखते हुए प्रषासनिक नियुक्ति के इस तरह के मामलों में उच्च आदर्ष और मानदंड स्थापित करे और यथास्थिति के बाहर निकले।
राष्ट्रीय विकास परिशद की बैठक में सभी राजनीतिक दलों के राज्यों के मुख्यमंत्रियों के बीच पहले भी यह सहमति बन चुकी है कि राज्यपाल की नियुक्ति कैसे की जाये। सरकारिया आयोग द्वारा भी इस विशय में स्पश्ट और महत्वपूर्ण संस्तुतियां की गयी थी किन्तु जिस प्रकार से राज्यपालों की नियुक्तियां होती रही हैं और उनकी कार्य-भूमिका कई बार संदिग्ध और विवादों से घिर गयी उसकी बानगी आजाद के ठीक बाद से ही देखी जा सकती है। 1952 में तत्कालीन मद्रास के राज्यपाल श्री प्रकाष ने चक्रवर्ती राजगोपालाचारी को सरकार बनाने का न्यौता दिया जबकि विधानसभा में कांग्रेस को बहुमत नही था वहीं 1959 में केरल में ई.एम.एस. नम्बूदरीपाद की साम्यवादी सरकार को राज्यपाल की रिपोर्ट पर बर्खास्त कर दिया गया जबकि विधानसभा में उनको बहुमत प्राप्त था। उसके बाद से राज्यपाल रोमेष भंडारी (उŸार प्रदेष), सिप्ते रजी (झारखंड), बूटा सिंह (बिहार) और एस सी जमीर (गोवा) ऐसे अनेक उदाहरण हैं जिन्होंने इस संवैधानिक पद की गरिमा को धूमिल किया है।
इसमें संदेह नही है कि विधि और संविधान की जानकारी और इस विशय का पर्याप्त अनुभव रखने वाले सेवा निवृŸिा न्यायाधीषों को राज्यपाल जैसे पद पर नियुक्त करने से उनकी विषेशज्ञता का लाभ लिया जा सकता है किन्तु यह अवष्य देखना होगा कि ऐसे न्यायाधीषों को सेवानिवृŸिा के 3 से 5 वर्श बाद ही ऐसे पदों पर नियुक्त किया जाये ताकि उन पर सेवाकाल के अंतिम दिनों में सŸाा प्रतिश्ठान के प्रति झुकने का आरोप भी न लग सके और सरकार के कार्याें में सिर्फ ईमानदारी होनी ही नही चाहिए बल्कि यह दिखनी भी चाहिए।
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केरल में राज्यपाल पद पर पूर्व प्रधान न्यायाधीष पी. सताषिवम की नियुक्ति तकनीकी तौर पर यद्यपि विधि और संविधान के दायरे में है किन्तु फिर भी कई सारे सवाल खड़े होते हैं। आखिर क्यों सर्वोच्च और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीषों को ’कूलिंग आॅफ पीरियड’ के बिना ऐसे पदों पर नियुक्त किया जाता है? और क्यों नियुक्ति में आवष्यक और अपेक्षित खुलेपन, पारदर्षिता और प्रषासनिक षुचिता का अनुपालन नहीं किया गया? हालांकि यह कोई पहली बार नही है जब ऐसे पदों पर सेवानिवृŸा न्यायाधीष, नौकरषाह और सेना के उच्चाधिकारी नियुक्त होते रहे हैं। लेकिन जिस सरकार को ईमानदारी के उच्च मानदंड तय करने है कम से कम उससे ऐसी अपेक्षा नही की जा सकती। अब तक जो कुछ होता आया है उससे कुछ अलग कर दिखाने की मोदी सरकार की प्रतिबद्धता पर इससे प्रष्नचिन्ह लगता है। स्वयं प्रधानमंत्री मोदी ने अपने सार्वजनिक जीवन में ईमानदारी और नैतिकता के जिन मानदंडो को अब तक बनाये रखा है, राज्यपाल की इस नियुक्ति से उस पर निष्चित तौर पर असर पड़ रहा है क्योंकि ऐसा संदेष जा रहा है कि अपने एक वरिश्ठ कैबिनेट सहयोगी को मुकदमें में राहत पहुँचाने के लिए न्यायाधीष सदाषिवम को राज्यपाल पद देकर उपकृत किया गया है। यह गलत और खतरनाक परम्परा है।
यदि सेवाकाल के अन्तिम कार्यदिवसों पर न्यायाधीष सरकार के प्रति इस उम्मीद में नरम पड़ने लगेंगे कि वे इसके बाद महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्ति पा सकेंगे तो न्यायपालिक का नीर-क्षीर विवेक कहाँ जायेगा? जहाँ तक कांग्रेस का सवाल है इन मामलों में उसका अतीत इतना दागदार रहा है और इस प्रकार की नियुक्ति की ऐसे न जाने कितने उदाहरण हैं जिससे इस किताब के पन्ने भी कम पड़ जायेंगे, इसलिए उसके द्वारा विरोध करने का कोई नैतिक और विधिक बल भी नही है लेकिन मोदी सरकार के लिए अवष्य यह चिन्ता का विशय होना चाहिए कि न्यायपालिका की निश्पक्षता और स्वतंत्रता बनाये रखते हुए प्रषासनिक नियुक्ति के इस तरह के मामलों में उच्च आदर्ष और मानदंड स्थापित करे और यथास्थिति के बाहर निकले।
राष्ट्रीय विकास परिशद की बैठक में सभी राजनीतिक दलों के राज्यों के मुख्यमंत्रियों के बीच पहले भी यह सहमति बन चुकी है कि राज्यपाल की नियुक्ति कैसे की जाये। सरकारिया आयोग द्वारा भी इस विशय में स्पश्ट और महत्वपूर्ण संस्तुतियां की गयी थी किन्तु जिस प्रकार से राज्यपालों की नियुक्तियां होती रही हैं और उनकी कार्य-भूमिका कई बार संदिग्ध और विवादों से घिर गयी उसकी बानगी आजाद के ठीक बाद से ही देखी जा सकती है। 1952 में तत्कालीन मद्रास के राज्यपाल श्री प्रकाष ने चक्रवर्ती राजगोपालाचारी को सरकार बनाने का न्यौता दिया जबकि विधानसभा में कांग्रेस को बहुमत नही था वहीं 1959 में केरल में ई.एम.एस. नम्बूदरीपाद की साम्यवादी सरकार को राज्यपाल की रिपोर्ट पर बर्खास्त कर दिया गया जबकि विधानसभा में उनको बहुमत प्राप्त था। उसके बाद से राज्यपाल रोमेष भंडारी (उŸार प्रदेष), सिप्ते रजी (झारखंड), बूटा सिंह (बिहार) और एस सी जमीर (गोवा) ऐसे अनेक उदाहरण हैं जिन्होंने इस संवैधानिक पद की गरिमा को धूमिल किया है।
इसमें संदेह नही है कि विधि और संविधान की जानकारी और इस विशय का पर्याप्त अनुभव रखने वाले सेवा निवृŸिा न्यायाधीषों को राज्यपाल जैसे पद पर नियुक्त करने से उनकी विषेशज्ञता का लाभ लिया जा सकता है किन्तु यह अवष्य देखना होगा कि ऐसे न्यायाधीषों को सेवानिवृŸिा के 3 से 5 वर्श बाद ही ऐसे पदों पर नियुक्त किया जाये ताकि उन पर सेवाकाल के अंतिम दिनों में सŸाा प्रतिश्ठान के प्रति झुकने का आरोप भी न लग सके और सरकार के कार्याें में सिर्फ ईमानदारी होनी ही नही चाहिए बल्कि यह दिखनी भी चाहिए।
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Monday, 11 August 2014
Monday, 28 July 2014
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