Monday 27 February 2012

वोटिंग बढऩा लोकतंत्र का शुभ लक्षण


पांच राज्यों के विधानसभाओं  चुनावों के दौरान उत्तर प्रदेश, पंजाब और उत्तराखंड में जिस तरह जमकर वोटिंग हुई, वो लोकतंत्र के लिए शुभ लक्षण है। इससे साफ है कि हमारा लोकतंत्र मजबूत होने की राह पर ही अग्रसर नहीं है बल्कि मतदाताओं की समझबूझ और परिपक्वता भी बढ़ी है।
२६ जनवरी १९५० को देश के संवैधानिक ढांचा का जामा पहनने से ठीक एक दिन पहले निर्वाचन आयोग का भी गठन हुआ था, लिहाजा पिछले सालों  में ये दिन मतदाता दिवस के रूप में आता था और निकल जाता था लेकिन २०१२ में पहली बार पता चला कि मतदाता दिवस भी कुछ होता है। इसका मतलब सचमुच विधानसभा चुनावों के दौरान नजर आया, ये लगा कि मताधिकार के प्रति लोगों में जागरूकता वाकई खासी बढ़ी है, मुझको लगता है कि आने वाले समय में ये जागरूकता और भी बढेगी। लोकतंत्र में बिना जनता की सहभागिता निर्वाचन सुधारों की बात कैसे की जा सकती है? उनके बिना हर तरह के सुधार अधूरे ही रहेंगे। ये बात अतीत में हमने देखी है। वैसे चुनाव आयोग लंबे समय से कोशिश में लगा था कि किस तरह जनता को बड़े पैमाने पर वोटिंग केंद्रों तक खींचा जा सके। इस बार ये कोशिशें सफल होती लग रही हैं। हालांकि चुनाव सुधार के लिए कोशिशें वर्ष १९७५ में शुरू हुई थीं। नब्बे के दशक में केंद्र में संयुक्त मोर्चा सरकार के केंद्रीय कानून मंत्री रमाकांत खलप ने ३१ जुलाई 96 में चुनाव सुधारों के लिए दिनेश गोस्वामी की अध्यक्षता में कमेटी की सिफारिशों को लागू किया था। इससे अगर लगातार चुनावों सुधारों की दिशा में पहल होती चली गई तो सु्प्रीम कोर्ट के समय समय पर आये निर्देशों से भी इस संबंध में प्रक्रिया आगे बढ़ी। अभी तक हमने देखा था कि किस तरह जनता की सहभागिता के बगैर ये प्रक्रिया अप्रभावी सी ही थी। चुनावों में जनता का मत प्रतिशत बमुश्किल ४० फीसदी तक पहुंच पाता था। उत्तर प्रदेश में लखनऊ में विधानसभा चुनावों में पिछली बार महज ३६ फीसदी वोट डाले गये जबकि इस बार ५६ फीसदी मतदान हुआ, यानि २० प्रतिशत का उछाल। ऐसा ही उत्तर प्रदेश के दूसरे तमाम इलाकों में वोटिंग के दौरान दिखा। हर जगह वोटिंग में १५ से २० प्रतिशत तक इजाफा देखा गया। पंजाब और उत्तराखंड में ७० फीसदी तक मतदान हुआ। ये शुभ संकेत है। इसके पीछे कई कारक काम कर रहे थे। पहला कारण ग्रामीण महिलाओं की ज्यादा भागीदारी रही, जिनके सामने घर की समस्याएं, महंगाई मुंह बाये खड़ी थी। उनके लिए इससे निपटने का ये  एक मौका था, उन्हें समझ में आ गया कि इन दिक्कतों से निपटने के लिए तरीका यही है कि बुद्धिमानी के साथ चुनाव प्रक्रिया में हिस्सा लिया जाये। लिहाजा उन्हें अहसास हो गया कि अब बेहतर सरकार बनाने में उन्हें अपनी भूमिका निभानी होगी। यही कारण था कि मतदान के दिन ग्रामीण क्षेत्रों की महिलाओं ने घर के कामकाज, चूल्हा-चौका जल्दी निपटाया और तैयार होकर वोटिंग केंद्रों पर पहुंच गईं। ग्रामीण क्षेत्रों में वोटिंग के दिन लंबी लंबी लाइनें देखी गईं। ग्रामीण महिलाओं का जीवन यूं भी मुश्किल होता है, न केवल उनके सामने काम को बोझ ज्यादा होता है बल्कि चुनौतियां भी ज्यादा होती हैं। ये महिलाएं निश्चित ही साधुवाद की पात्र हैं। बेशक शहर में भी वोटिंग बढ़ी लेकिन उसका अनुपात और महिलाओं की भागीदारी गांवों की तुलना में कम रही। दूसरा कारक मतदाताओं के रूप में युवावर्ग का बढऩा रहा, ये वो युवा वर्ग है, जिसे भविष्य की चिंता सता रही है, जो अपने भविष्य को संवारना चाहता है। उसके सामने रोजगार की चिंता है। वह आरक्षण से प्रभावित है, मतलब ये कि जिन्हें आरक्षण की सुविधा हासिल है, वो इसके जरिए आगे का रास्ता बनाना चाहते हैं, जिन्हें नहीं है, वो सुनिश्चित करना चाहते हंैं कि इसके बगैर किस तरह भविष्य को संवार सकते हैं- और ये तभी होगा जब वो एक असरदार सरकार के लिए वोट करें। इन युवाओं को अहसास है कि राष्ट्र निर्माण का जिम्मा अब उसी पर है, इसी से उसके अपने भविष्य का निर्माण भी होगा। इसलिए उसने भी बढ़चढ़ कर इसमें हिस्सा लिया। शहरी मध्यवर्ग, जो आमतौर पर चुनावों में ज्यादा दिलचस्पी नहीं दिखाता, ने इस बार बदला हुआ रुख दिखाया। भ्रष्टाचार के मुद्दे ने उसे प्रेरित और एकजुट किया। बेशक अन्ना आंदोलन का वैसा असर चुनावों में नहीं दिखा, लेकिन ये कहना होगा कि इसने लोगों के बीच भ्रष्टाचार और अनैतिक राजनीतिज्ञों के खिलाफ माहौल बनाने का काम तो किया ही। तीसरा कारक चुनाव आयोग की सक्रियता के साथ मीडिया की भूमिका थी, जिसने आमजनता को जगाया, उनके दिमाग में ये बात बिठाई कि चुनावों के दौरान हर वोट की कितनी महत्ता होती है,  लिहाजा हर कोई इस अधिकार का इस्तेमाल जरूर करे। कहा जा सकता है कि चुनावों के दौरान मतदाताओं का बड़े पैमाने पर मताधिकार का इस्तेमाल शुभ लोकतंत्र का लक्षण है, इससे उम्मीद की जानी चाहिए कि हमारा लोकतंत्र और मजबूत होगा। लोकतंत्र की ये फसल एकदम सही समय पर पकती हुई लग रही है। वैसे न तो इतने भर से खुश होना चाहिए और न संतुष्ट, क्योंकि चुनावों सुधारों की दिशा में अभी बहुत कुछ किया जाना शेष है। ये भी देखना होगा कि चुनावों पर खास असर डालने तीन नकारात्मक तत्वों यानि धनबल, बाहुबल और भ्रष्टबल से किस तरह निजात पाई जा सकती है। हालांकि बड़ी पार्टियों ने बड़े अपराधियों को टिकट नहीं दिया, लेकिन तब भी ऐसे तत्वों को रोकने की मुकम्मल व्यवस्था नहीं बन पाई है। वो दिन कब आयेगा जब कोई ईमानदार व्यक्ति, जिसके पास कम पैसा और सीमित साधनतंत्र हैं, वो चुनाव लडऩे के बारे में सोच सकेगा-हमारे असली लोकतंत्र की जीत उसी दिन होगी जब ईमानदार और बेहतर लोग ऐसा कर पाएंगे।

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