Tuesday 25 September 2012

यूपीए सरकार का स्वांग - प्रत्यूष मणि त्रिपाठी


हाल ही में यूपीए सरकार ने आर्थिक सुधारों के लिए कदम उठाने का दावा करते हुए आनन-फानन में कई फैसले ले डाले-घरेलू ईंधन गैस की सब्सिडी को एक सीमा के दायरे में ला दिया गया तो पेट्रोल और डीजल के दामों में बढोत्तरी कर दी गई। रिटेल सेक्टर और वायु उड्डयन के क्षेत्र में ५१ फीसदी या ज्यादा एफडीआई को हरी झंडी दे दी गई। ये सब फैसले करने के बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा कि अब हम आर्थिक सुधारों की दिशा में रुक नहीं सकते, लिहाजा ऐसे कदम उठाने जरूरी हो चले हैं।
सबको मालूम है कि यूपीए सरकार के चार साल के कार्यकाल में ने केवल निराशा का माहौल बना है बल्कि घपले - घोटालों का बोलबाला रहा है। एक के बाद एक बड़े घोटाले हुए- कामनवेल्थ गेम्स,  टूजी, आदर्श हाउसिंग सोसायटी और अब कोयला ब्लाक आवंटन में भ्रष्टाचार। यूपीए-२ सरकार की काम करने की रफ्तार बेहद सुस्त हो चली है। फैसले हो नहीं रहे। महंगाई बेतहाशा बढ़ रही है। उसका असर न केवल विकास दर पर पड़ा बल्कि विदेश में भी हमारी छवि व विश्वसनीयता को जबरदस्त धक्का पहुंचा। एक ओर जनता त्रस्त है तो दूसरी ओर सरकार की उदासीनता और गैर जवाबदेही भी उसी गति से बढ़ रही है। लगता ही नहीं कि ये सरकार जनता के हितों के बारे में सोचती है। अब जबकि चुनावों को एक साल शेष रह गये हैं तब वो ये दावा कर रही है कि आर्थिक सुधारों की दिशा में कदम उठाने का समय आ गया है।
कौन इस सरकार के नियंताओं से पूछ सकता है कि जितने घोटाले देश में पिछले चार सालों में हुए उससे देश को कितनी क्षति पहुंची है, करदाताओं के हितों पर किस तरह डाका डाला गया है। आखिर इन घोर अनियमितताओं से क्षति सरकारी कोष की ही हुई। अब अगर सरकार फिर से पेट्रोल, डीजल और घरेलू गैस के दाम बढ़ा रही है और इसे आर्थिक जरूरतों का तकाजा बता रही है तो ये भी जनता से ही धोखा है। इन सबके जरिये जनता की जेब पर ही डाका डलेगा और उससे राजस्व की भरपाई की जायेगी। 
एक करदाता के रूप में ये सबकुछ देखना बहुत पीड़ादायी है। आखिर देश का मध्य वर्ग और निम्न मघ्यम वर्ग का करदाता अपनी मेहनत की कमाई टैक्स के रूप में देता है और उस पर मंत्री, नेता और अफसर मौज उडाते हैं, अनाप-शनाप खर्चे करते हैं और घोटाले करते हैं। क्या देश के नेताओं की कोई जवाबदेही जनता और उसकी खून पसीने की कमाई के प्रति बनती है? पहले राजस्व को अपनी शाहखर्ची में खाली कर दो और फिर इसकी भरपाई के लिए करदाता पर कर का बोझ और बढाते चले जाओ। डीजल, पेट्रोल के दामों में बढोतरी का असर बेशक उन लोगों पर तो कतई नहीं पड़ेगा, जो करोड़ों की गाडिय़ां खरीदते हैं और उस पर चलते हैं, उनके लिए पांच रूपये प्रति लीटर डीजल में वृद्धि चिंता की बात नहीं। लेकिन बाकी लोग जिसमें किसान, आम जनता और मध्यम वर्ग आदि शामिल हैं, महंगाई और कुशासन की चक्की में पिसते ही जा रहे हैं।
अगर सरकार सुधारों पर वाकई गंभीर है तो उसे अपने घर से सुधार करना चाहिए, अपने खर्चों में कमी करना चाहिए। करदाताओं के पैसे पर अनाप शनाप खर्चों की अहमियत समझनी चाहिए। अगर उसकी सियासी मंशा ठीक होगी तभी आर्थिक सुधारों के परिणाम भी सही तरीके से सामने आ सकेंगे।
देश में वर्ष १९९१ में शुरू हुए आर्थिक उदारीकरण के दौर में जब विदेशी पूंजी निवेश का माहौल बना तो यकीनन इससे देश में संपन्नता आई, सुख सुविधा बढ़ी। इसका लाभ आम लोगों को भी मिला, उनका जीवनयापन बेहतर हुआ, कमाई बढ़ी। आर्थिक उदारीकरण के माहौल का सकारात्मक पक्ष दिखने लगा। ऐसे में इसके विरोध का कोई औचित्य नहीं बनता लेकिन ये सरकार की जिम्मेदारी बनती है कि निराशा की जो गहरी चादर अब पूरे देश में फैल चुकी है, उसे सही मंशा के साथ छांटने की कोशिश की जाये। सरकार की नीयत साफ होनी चाहिए, उसके काम और बातों में सत्यता होनी चाहिए। मौजूदा समय में देश की आम जनता का विश्वास सरकार और उसके नेताओं, मंत्रियों और अफसरों पर से बिल्कुल उठ चुका है। हालांकि ये बात भी तय है कि आर्थिक सुधारों की गाड़ी को रोकना अब किसी सरकार की वश की बात नहीं। जो भी पार्टी सरकार में आयेगीे, उसे यही कदम उठाने होंगे और शायद यही समय की जरूरत भी है। 
वैसे अगर ये लग रहा है कि सरकार अब जो भी कदम उठा रही है, उसके पीछे वह केवल एक साल बाद होने वाले चुनावों के फायदों को देख रही है तो ये गलत नहीं है। जो सियासी दल नये फैसलों का विरोध कर रहे हैं, उनके विरोध में सदाशयता से ज्यादा चुनावी नूरा कुश्ती ज्यादा है। आप खुद देखिये पिछले चार सालों में केंद्र सरकार से जुड़ी हर सेवा और हर कामकाज में किस तरह गिरावट आई है। कार्यकुशलता शब्द केंद्र सरकार की हंसी उड़ाता लगता है। रेल मंत्रालय को ही ले लीजिये। पिछले चार सालों में रेल सेवाओं की हालत लचर होती गई, दुर्घटनाएं बढ़ीं और इसके कामकाज को  उपेक्षा के तराजू पर चढा दिया गया। रेल मंत्रालय कहां से चल रहा है, कौन चला रहा है, क्या फैसले  हो रहे हैं, कार्य निष्पादन क्यों नहीं हो पा रहा है-इसका जवाब खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के पास भी नहीं होगा। एेसा ही हाल दूसरे मंत्रालयों और वहां हो रहे कामकाज का है। 
ऐसे में न तो सरकार का इकबाल समझ आता है और न ही मंशा-हाल के फैसलों के बाद सरकार का अंदाज शहीद होने का स्वांग ज्यादा लगता है। दरअसल यूपीए सरकार के पास अब खोने के लिए कुछ बचा भी नहीं। उनकी रणनीति अब जनता के बीच जाकर ये रोना रोने की है कि वो तो काम करना चाहते थे लेकिन घटक दलों और विपक्ष ने नहीं करने दिया। दुर्भाग्य ये भी कि यूपीए के मंत्री गैरजिम्मेदाराना बयान देने से बाज नहीं आ रहे। बाद में छीछालेदार होने पर ये कहकर मुंह चुराने लगते हैं कि हमने तो मजाक किया है, जैसा हाल में गृह मंत्री सुशील शिंदे ने किया। माफ कीजियेगा शिंदे जी, गृह मंत्री होने के नाते आपका काम गंभीरता से जुड़ा है न की मजाक से-आप कोई विदूषक नहीं हैं और न आपको मजाक करने के लिए गृह मंत्री बनाया गया है। सरकार मजाक से नहीं चलती। मजाक से चलने वाली सरकारें मजाक बनकर ही रह जाती हैं।

1 comment:

  1. रियल स्टेट डेवलपर की भांति सोचता ये शासनतंत्र सिर्फ अपनी तिजोरिया भरने में मस्त है। हमारे हुक्मरानों ने उदार नीतियों के नाम पर व्यवसायीकरण के रास्ते को अपनाते हुए ऐसी नीतियों को रचने का खेल शुरू कर दिया है जो इस देश को ज़मीदोज करने के लिए काफी है !!!

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