Wednesday 7 August 2013

दुर्गा शक्ति के बहाने आईएएस भी सोचें


स्वतंत्रता के बाद सरदार पटेल ने भारतीय सिविल सेवाओं का भारतीयकरण शुरू किया था। उन्होंने सचिवालय प्रशासन व्यवस्था का पुनर्गठन किया और आजादी के पूर्व नौ अखिल भारतीय सेवाओं को खत्म कर केवल दो आईएएस और आईपीएस को अखिल भारतीय सेवा के रूप में बनाये रखा। भारतीय वन सेवा का गठन बहुत बाद में 1968 में हुआ। ये तीसरी अखिल भारतीय सेवा बनी। तब से आजतक अखिल भारतीय सेवाओं, खासकर आईएएस संवर्ग ने न केवल देश को प्रशासनिक नेतृत्व प्रदान किया बल्कि देश को राजनीतिक एकता के सूत्र में बांधा।
नीति निर्माण से नीति क्रियान्वयन में उनकी शानदार भूमिका रही। जनता के बीच सरकार की सफलता और विफलता का पैमाना आईएएस संवर्ग की कार्यशैली और व्यवस्था से निर्धारित होता रहा है। जनता की नजरों में आईएएस संवर्ग ही सरकार का प्रतिरूप है लेकिन 1975 के आपातकाल के बाद इतनी तेजी से सिविल सेवा का राजनीतिकरण हुआ है और जिस प्रकार नौकरशाही राजनीतिक, जातिगत और दलीय आधारों पर बंटती गई, आज उसी का परिणाम दुर्गा शक्ति नागपाल मामले में सामने आया। वह आईएएस संवर्ग की  पहली अफसर नहीं,जिनके साथ अन्याय हुआ है बल्कि इसके कई उदाहरण हैं। 
लेकिन जिस तरह से आईएएस संवर्ग ने अपने राजनीतिक स्वामियों के सामने आत्मसमर्पण किया और नतमस्तक हुए हैं, उससे ईमानदार अफसरों को प्रशासनिक उत्पीडऩ झेलना पड़ता है। अधिक आकर्षक पदों पर नियुक्ति और राजनीतिक स्वामियों के निकट आने की प्रवृत्ति के कारण आईएएस संवर्ग के लगातार कमजोर होते जाने से न केवल सिविल सेवाओं की प्रतिष्ठा गिरी है बल्कि उनकी विश्वसनीयता भी संदिग्ध हुई है।
आज स्वयं आईएएस संवर्ग को भी सोचना होगा कि आखिरकार जिसे कभी भारत का स्टील फ्रेम कहा जाता था, वो इतना जर्जर और कमजोर क्यों हो गया? सिविल सेवाओं को जो संवैधानिक संरक्षण हासिल है, उसके तहत जब तक दोष साबित नहीं हो जाये, तब तक उसके खिलाफ ट्रांसफर से ज्यादा कोई कार्रवाई नहीं की जा सकती, वो भी लोकहित में।
लेकिन गत कुछ दशकों से दल विशेष की सरकार बनने पर राजनीतिक निकटताओं के चलते कुछ आईएएस अफसर इतने महत्वपूर्ण और प्रभावी हो जाते हैं कि वे ही सचिवालय, मंत्रालय से लेकर जिला स्तर तक समूची सरकार चलाते हैं। शेष अफसर प्रशासनिक हाशिये पर धकेल दिये जाते हैं। तब आईएएस एसोसिएशन कुछ कहती और करती दिखाई नहीं देती। 
याद नहीं आता कि कभी आईएएस एसोसिएशन ने सर्वसम्मति से ये फैसला किया हो कि हम अपने सियासी स्वामियों का कोई गैर कानूनी और अवैध आज्ञापालन नहीं करेंगे। हम अपने सीनियर अफसरों से प्रशासनिक शुचिता का पाठ सीखेंगे, अधीनस्थ को नेतृत्व, मार्गदर्शन और देश के विकास में आगे बढऩे की सीख देंगे। ऐसी मिसाल फिलहाल सामने नहीं दिखती, जब आईएएस एसोसिएशन ने गलत सियासी निर्णयों का विरोध किया हो।
ऐसे में वह फिर चाहें खेमका हों या फिर संजीव चतुर्वेदी या फिर दुर्गा शक्ति, उनको अपने कानूनी कार्यों के लिए दंड भुगतना पड़ता है। ये उस क्षरण का प्रतीक है जो राजनीतिक और सामाजिक जीवन में गहरे तक प्रवेश कर गया है। इसलिए ये आईएएस एसोसिएशन के लिए  आत्मचिंतन और आत्ममंथन का विषय है। जब मंथन हो तो अमृत-विष दोनों ही निकलते हैं। वहीं सियासी वर्ग को ये सोचना होगा कि वो जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों के रूप में सीधे और प्रत्यक्ष रूप से जनता के लिए जवाबदेह हैं। उन्हें ऐसे विषयों को प्रतिष्ठा का विषय नहीं बनाना चाहिए और हठधर्मिता छोडक़र कुशल राजनीतिक नेतृत्व देना चाहिए। 
लेकिन इसके ठीक विपरीत वो जनप्रतिनिधि कानून पर सुप्रीमकोर्ट के निर्णय और आरटीआई के दायरे से खुद को बाहर रखने के लिए लामबंद हो रहे हैं। ये शुभ संकेत नहीं है। राजनीतिक वर्ग और सिविल सेवक एक दूसरे के पूरक और सहयोगी हैं न की प्रतिद्वंद्वी, विरोधी या प्रतिस्पर्धी। इन्हें एक-दूसरे के साथ सामंजस्य से कार्य करना होगा अन्यथा देश का सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक विकास अवरूद्ध होता रहेगा।

1 comment:

  1. सर ......आई ए एस एसोसिएसन की बात कर रहे है आप !!! इन अधिकारीयों ने अपनी आवश्यकताए इतनी बढ़ा ली है कि इनका काम इनके वेतन से नहीं चलता .....जो स्वयं आकण्ठ भ्रष्टाचार में डूबा है वो क्या किसी के लिए लड़ेगा ???? ....हाँ एक विचित्र बात है जिसका मोह ... आकण्ठ भ्रष्टाचार में डूबे अधिकारियो से नहीं छुट रहा है वह है इनकी संताने ...इनके लिए ये यही चाहते है ये सत प्रतिशत दोष रहित जिन्दगी व्यतीत करें .....मसलन सच बोले, ईमानदार रहे, अपना कार्य त्वरित एवं सुचारू रूप से करें .....कैसी सोच है यह ....जब बीज बबूल का बोया गया हो तो उस पौधे से आम की प्राप्ति की आशा करना बेहद हास्यपद है ......दूर क्यों जाते है आप अपनी कोचिग में एक प्रश्न करके देखें की इस में कितने लोग यहाँ ईमानदारी और देश सेवा के लिए आई ए एस बनना चाहते है .....जवाब बेहद चौकाने वाला होगा लगभग सभी .......सर आप भी जानते है ये जवाब अभी से झूठ का लबादा ओढ़ कर आएगा/ आया है जो अभी सुसुप्तावस्था में ही है .....फिर कैसी उम्मीद ? किससे उम्मीद ??? (अमित वर्मा)

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