Thursday 16 April 2015

New Article on Farmer's Issues or problems

किसानों का संकट
हे ग्राम देवता, तुमको प्रणाम। इस तरह की आकर्शक, कर्णप्रिय और सुंदर पक्तियां हम प्रायः सुनत-पढ़ते रहते हैं लेकिन यथार्थ के धरातल पर उनके लिए कुछ होता नही दिखता। इस बार भी बिन मौसम की बरसात और बदलते जलवायु चक्र ने लगभग पूरे उŸार भारत में फसलों को बरबाद कर दिया है, कई किसानों ने आत्महत्यायें कर ली और कई फिर से तंगहाली और कर्ज के जाल में फंस गये हैं लेकिन सरकार से उनको मुआवजा और राहत के नाम पर उनको सिर्फ आष्वासन या मजाक मिला।
एक कृशि प्रधान देष होते हुए भी भारत में खेती-किसानी करने वालांे की ऐसी दयनीय स्थिति और दुर्दषा क्यों है। कोई भी अपने बच्चें को किसान नहीं बनाना चाहता। खेती-किसानी करना गरीबी, पिछड़ापन और आर्थिक तंगी का पर्याय माना जाता है। जबकि आज भी देष में अधिकांष जनसंख्या खेती और खेती से जुड़े उद्योगों पर निर्भर करती है, जिन्हें हम अन्नदाता कहते हैं उन्हीं की स्थिति देष में सबसे खराब है। दरअसल इस देष में जवान और किसान तभी याद आते हैं जब हमारे सामने कोई बड़ा संकट खड़ा हो जाता है। लगातार बढ़ती जनसंख्या और मानसून पर निर्भरता होने के बावजूद हमारे देष के किसानों ने अभूतपूर्व पैदावार दिया है लेकिन हमारी सरकार अभी तक ऐसी भंडारण क्षमता और फसल सुरक्षा प्रणाली क्षमता का निर्माण नहीं कर पायी जिससे हम खेती किसानी करने वालों की आर्थिक सुरक्षा सुनिष्चित कर सके और देष को हमेषा के लिए खाद्य संकट से मुक्ति दिला सकें।
आज किसानों के सामने सबसे बड़ा संकट मौसम की मार और आर्थिक असुरक्षा है। उनकी कोई निर्धारित आय नहीं है। खेती आज भी जोखिम और घाटे का सौदा है। मंडी व्यवस्था में फसल और उपज का मूल्य व्यापारी और बिचैलियों के हितों में अधिक है। कृशि लागत और मूल्य आयोग (सीएसीपी) आज तक ऐसी समर्थन या मूल्य प्रणाली नहीं बना पाया जिससे किसानों की आर्थिक असुरक्षा को दूर किया जा सके। किसानों का संकट सिर्फ किसानों का नहीं है यह पूरे देष का संकट है और अगर इस देष का किसान परेषान और खस्ताहाल रहेगा तो कोई भी दूसरा वर्ग सुखी और खुषहाल नहीं रह सकता। इसलिए कुछ सुझाव हैं - कुछ ऐसी व्यवस्था की जाये जिससे किसानों की एक न्यूनतम निर्धारित एवं मासिक आय हो, जो कि बहुत मुष्किल काम नहीं है। राजनीतिक दूरदर्षिता और प्रषासनिक कौषल के साथ यह काम सीएसीपी कर सकता है जिसमें अर्थषास्त्री और सांख्यकिकीविद किसान की फसल का एक औसत वार्शिक मूल्य निकाल सकें और सरकार द्वारा उन्हें एक न्यूनतम, निर्धारित पारिश्रमिक दिया जाये। एक निर्धारित मात्रा से अधिक कृशि स्रोतों से होने वाली वार्शिक आय को कर के दायरें में लाया जाये ताकि जो खेती-किसानी के नाम पर अपनी कर योग्य धनराषि को बचा ले जाते हैं वे इसका लाभ न उठा सके और वास्तविक किसान को ही सरकारी योजनाओं, सब्सिडी इत्यादि का लाभ मिलें। प्रधानमंत्री जन धन योजना, आधार और मोबाइल से देष के प्रत्येक किसान का सूचना और डाटा बैंक तैयार किया जाये और सारी राहत, सब्सिडी व अन्य धनराषि सीधे उनके खातों में हस्तानांतरित की जाये। वास्तविक किसान और दिखावटी किसान के बीच के अन्तर को समझा जाये ताकि देष का अन्नदाता सक्षम और समर्थ हो सके।
डाॅ0 प्रत्यूश मणि त्रिपाठी, निदेषक वैद आईसीएस लखनऊ
    

2 comments:


  1. बे मौसम बरसात हुई है,
    आज तो सारी रात हुई है..
    कुछ को यह रंगीन लगी है,
    पर कुछ को संगीन बनी है..
    टूट गये सपने किसान के,
    रोता नीचे आसमान के..
    मानसून की मार पड़ी थी,
    एक न तब बौछार पड़ी थी..
    खून पसीने से सींचा था,
    अपने सपनों को बेचा था..
    मुश्किल से जो धान पके थे,
    वो मिट्टी के मोल बिके थे..
    अब गेहूँ पर झूम रहा था,
    उन पौधों को चूम रहा था..
    आलू सरसों पर इठलाता,
    अपने बच्चों को समझाता..
    ले आना तुम फीस का पर्चा,
    कॉपी और किताब का खर्चा..
    नये सूट तुम सिलवा लेना,
    साइकिल नई निकलवा लेना..
    सपनों पर आघात हो गया,
    तुमको क्या बरसात हो गया..
    फसल जमी पर सुला दिया है,
    फिर किसान को रुला दिया है..
    ज्यों ज्यों पानी बरस रहा है,
    यह गरीब भी तरस रहा है..
    क्या किसान इन्सान नहीं है,
    सुनता क्यों भगवान् नहीं है..

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