Thursday, 25 October 2012

दागदार होते खेल नायक और समाज पर असर 

एक टीवी चैनल के हालिया स्टिंग ने फिर साबित किया कि क्रिकेट जैसे खेल में फिक्सिंग की आंच केवल खिलाडिय़ों तक ही नहीं बल्कि अंपायरों तक पहुंच गई है। श्रीलंका, पाकिस्तान और बांग्लादेश के अंपायरों ने छिपे हुए कैमरे के सामने स्वीकार किया कि उन्हें कुछ गलत फैसलों की एवज में पैसा लेने से इनकार नहीं। इस रहस्योदघाटन ने खेलों की नैतिकता पर फिर सवाल खड़े किये हैं कि जो खेल हम मैदान में देखते हैं वो वाकई कितने स्वस्थ होते हैं। क्रिकेट पर हाल के बरसों में फिक्सिंग के न केवल कई बड़े मामले उजागर हुए हैं बल्कि तमाम मैचों में खिलाडिय़ों के प्रदर्शन और अंपायरों के फैसलों पर सवाल उठते रहे हैं। 
मुझे याद आता है कि करीब एक दशक पहले फिक्सिंग के एक बड़े झकझोर देने वाले मामले में दक्षिण अफ्रीका के लोकप्रिय क्रिकेटर हैंसी क्रोनिए का नाम सामने आया था। किसी को ये विश्वास तक नहीं था कि हैंसी ऐसा कर सकते हैं। वह उस दौर के बेेेहद सम्मानीय क्रिकेटर थे। प्रशंसकों से उन्हें बेपनाह प्यार मिलता था। लोग उनकी लीडरशिप को एक उदाहरण के तौर पर पेश करते थे। जब ये पता लगा कि वह क्रिकेट के भ्रष्टाचार में लिप्त हैं तो ये बहुत निराशा हुई। ये खेल नायकों के पतन का आरंभ था। चूंकि खेल नायकों को हम देवताओं के सदृश प्रतिष्ठित मानते हैं लिहाजा ये उस इमेज पर बहुत गहरा झटका था। ऐसी किसी भी घटना का असर भले तुरंत नहीं दिखेे लेकिन इसका मनौवैज्ञानिक असर समाज पर पड़ता है। 
खेल जगत बेशक कुछ सालों पहले तक भ्रष्टाचार से अछूता लगता था। हालांकि भ्रष्ट आचरण की व्यापकता हमेशा से रही है। हमारा कारपोरेट और राजनीति के लोग हमेशा से इसमें आकंठ डूबे रहे हैं, लिहाजा पतन भी उतना व्यापक तरीके से हो रहा है। ये व्यापक क्षरण समाज की गिरती स्थिति का भी प्रतीक है। 
जब भी खेलों की बात होती है तो स्वस्थ स्पर्धा, स्वस्थ मनोरजंन, ऊर्जा से खिलाड़ी और प्रतिभाओं की एक बेहतर तस्वीर दिमाग में उभरती है। सदियों से खेलों की कल्पना कुछ ऐसी ही की गई है, बल्कि कल्पना क्यों कहें हमने कुछ दशकों पहले तक खेलों को इसी तरह से देखा है। जब 19वीं सदी के आरंभ में पियरे द कुबर्तिन ने दोबारा ओलंपिक खेलों को शुरू करने का सपना देखा तो उनके दिमाग में स्वस्थ खेलों के जरिए अतरराष्ट्रीय जगत में एक स्वस्थ संदेश देकर समाज को सकारात्मक दिशा में आगे बढाना था। ये वो दौर था जब व्यावसायिकता को खेलों से दूर रखने की भरपूर कोशिश की गई, क्योंकि कुबर्तिन ने तभी जान लिया था अगर खेलों में पैसा आ गया तो अपने साथ व्यावसायिकता और धन से जुड़ी कुरुपताएं और अनैतिक लिप्साएं भी लेकर आयेगा। इसलिए ओलंपिक खेलों के शुरू होने के बाद खिलाडिय़ों पर कड़ी नजर रखी जाती थी कि वो अपने खेल हूनर और खेल प्रतिभा को पैसे या बाजार के तराजू पर नहीं तौलें। जब भी कोई खिलाड़ी कोई ऐसा फायदा लेता पाया गया तुरंत उसका पदक छीना गया या उसे प्रतिबंधित कर दिया गया। लेकिन साठ के दशक के आते आते ओलंपिक खेल आंदोलन खुद पैसे और बाजार के कुचक्र में कैद हो गये। कहना चाहिए इसका असर खेलों और खिलाडिय़ों पर जो पड़ा वो अब लगातार नकारात्मक तौर पर सामने आता दिख रहा है। अब खेलों की स्वस्थ स्पर्धा और ईमानदार आचरण की बात तो सिरे से गायब हो गई है बल्कि खेल और खिलाड़ी ड्रग, सेक्स और धन की लिप्साओं में इतने धंस गये हैं कि खेलों की पूरी दुनिया में ही उसकी विद्रूप छाया पडऩे लगी है।
केवल क्रिकेट ही नहीं फुटबाल, बास्केटबाल, ओलंपिक और दूसरे तमाम खेलों में फिक्सिंग, सट्टेबाजी, प्रतिबंधित दवाओं का सेवन सामान्य बात बन गई है। दिक्कत ये है कि इससे जो अविश्वास का एक माहौल पनपा है, उसने नई पीढ़ी, समाज, आचरण, नैतिकता सारे ही पहलुओं को खासा नुकसान पहुंचाया है।
मुझको याद है कि 19७7 के सियोल ओलंपिक खेलों में सौ मीटर के स्वर्ण पदक विजेता बेन जानसन को प्रतिबंधित दवा के सेवन का दोषी पाया गया था। इस रहस्योदघाटन से पूरी दुनिया हिल गई थी। इसने सही मायनों में खेलों में विश्वास की चूलें हिला दी थीं। हालांकि इससे पहले भी तमाम अन्य खेलों में भी चीटिंग की कई घटनाएं हो चुकी थीं लेकिन इसने अहसास दिलाया कि अब खेल के  क्षेत्र में अंधकार की एक दुनिया पनप चुकी है। मैं फिर वही बात दोहराउंगा कि खेल नायक जब ऐसा करते हैं तो इसका गलत तरीके से फायदा गलत तत्व उठाते हैं। वैसे दीगर बात यही है कि खेलों में व्यावसायिकता की शुरुआत और बाजार के दबावों ने भी गलत रास्तों की ओर मोड़ा है। ये सच है कि पैसा जितना वैभव और समृद्धि लेकर आता है, उतनी ही बुराइयां भी साथ लाता है। 
क्रिकेट चूंंंकि हमारे भारतीय उपमहाद्वीप का सबसे लोकप्रिय खेल है, लिहाजा इसमें इस तरह की घटनाएं हमारे अविश्वास को और बढाती हैं। टीवी चैनल के स्टिंग की ताजा कड़ी ये भी बताती है कि केवल क्रिकेटर ही नहीं अंपायर भी इसकी गिरफ्त में हैं। अगर किसी खेल में लगातार ऐसा हो रहा हो तो ये भी लगता है कि इसे संचालित करने वाली संस्थाएं भी कहीं न कहीं अपनी भूमिका में खरी नहीं उतर रही हैं। अब आशंका ये है कि खेल और खिलाडिय़ों की ये अपयश गाथाएं हमें समाज की एक और स्वस्थ परंपरा से महरूम न कर दें।

इस शाहखर्ची को भी देखिये मनमोहन जी 
सरकार राजकीय कोष में कमी का रोना रोते हुए लगातार टैक्स का बोझ बढाने और सब्सिडी हटाने में में लगी है। पिछले तीन चार सालों में बढ़ते टैक्स और जबरदस्त महंगाई ने आज जनता का जीवन दुश्वार कर दिया है। क्रूर मजाक ये कि टैक्स दाताओं से हासिल धन का एक बड़ा हिस्सा  राजशाही और नौकरशाही के ऐशो-आराम, पार्टियों, विदेश यात्राओं समेत अनाप-शनाप खर्चों पर बहा दिया जाता है। सवाल पूछा जाना चाहिए कि ये लोकतंत्र है या लूटतंत्र? प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह नसीहत देते हैं कि पैसा पेड़ पर नहीं उगा करता। क्या ये नसीहत वो सरकार में मौजूदा साथियों, मातहतों और सूबे के हुक्मरानों को देना चाहेंगे? किसी भी पारदर्शी, ईमानदार और सुशासित तंत्र में वाकई सब्सिडी की जरूरत खत्म हो जाती है, क्योंकि उसके कामकाज से देश का हर वर्ग फलता-फूलता है, सबका विकास होता है। लेकिन मौजूदा हाल में तो ऐसा नहीं लगता बल्कि विकास का असली फायदा तेजी से कुछ मुट्ठी भर लोगों तक सिमटता जा रहा है।
कुछ अजीब विरोधाभास दिखते हैं-प्रधानमंत्री के सौजन्य से दी जाने वाली पार्टियों पर हर थाली का रेट करीब साढ़े सात हजार रुपये आता है। उनके मंत्रिमंडल के सदस्यों, आला अफसरानों के यहां तकरीबन रोज ही पार्टियां होती हैं, खर्च निकलता है सरकारी खजाने से। लोकसभा और राज्यसभा के अध्यक्ष हर हफ्ते आलीशान दावतों का आयोजन करते हैं। इस सिरे को बढ़ाकर अगर राज्यों की ओर ले जाएं, तो वहां भी मुख्यमंत्री, राज्यपाल, मंत्री , विधायक, आला अफसर सरकारी दावतों की मेजबानी  में पीछे नहीं रहते। करोड़ों रुपये के फूल रोज सरकारी कार्यालयों में सजाने के लिए खरीदे जाते हैं। करोड़ो रुपये रोज पेट्रोल में बहाये जाते हैं। करोड़ों रुपये रोज तमाम सैर-सपाटों और हवाई यात्राओं में स्वाहा होते हैं। सरकारी बंगलों और आफिसों के सौंदर्यीकरण पर तो खर्च के बारे में पूछिये ही मत। देश में ऐसे सरकारी अमलों की भी कमी नहीं, जो समय के साथ अप्रासंगिक हो चुके हैं, जिनके पास कोई काम नहीं लेकिन हर महीने का करोड़ों का बजट वो फूंक डालते हैं। देश की बदहाली पर सरकारी मशीनरी की संवेदनहीनता हैरतअंगेज है।
मौजूदा योजना आयोग के कार्यकाल में निर्धनता रेखा का आंकलन करने के लिए तीन समितियां चर्चा में रहीं। ये समितियां हैं-तेंदुलकर समिति, सक्सेना समिति और योजना आयोग की आंतरिक आंकलन समिति। देश में गरीबी की स्थिति, मात्रा और प्रतिशत को लेकर तीनों के अलग निष्कर्ष और आंकड़े हैं। सर्वोच्च न्यायालय में योजना आयोग ने हलफनामा दायर करके कहा ग्रामीण क्षेत्रों में २४ रुपये प्रतिदिन और शहरी क्षेत्रों में ३२ रुपये रोज कमाने वाला व्यक्ति गरीब नहीं है। यानि वो गरीबी रेखा से ऊपर है। ये भारतीय नागरिकों के साथ अशोभनीय मजाक नहीं तो और क्या है? ये सोच वाकई समझ से परे है। ये वही योजना आयोग है, जिसने अपने आफिस के टायलेटों के निर्माण पर प्रति टायलेट २२ से २५ लाख रुपयेे खर्च किये। 
है न अजीब कि एक तरफ करोड़ों-अरबों रुपये यूं बहाये जाएं और दूसरी ओर एलपीजी सिलेंडरों और किसानों के काम आने वाले डीजल पर नसीहत देते हुए सब्सिडी हटाई जाए। अगर राजकीय कोष को मजबूत करने के लिए सब्सिडी हटाना जरूरी है तो शायद उससे ज्यादा जरूरत सार्वजनिक जीवन में वैसा आचरण करने की जो गांधी जी जैसे महापुरुष किया करते थे। प्रधानमंत्री की आखिर कौन सी ऐसी मजबूरी है कि वो इन अपव्ययों को रोकने की बजाये बार बार जनता की जेब पर ही डाका डालते हैं, समय आ गया है कि सरकारी प्रश्रय में होने वाले इन अपव्ययों को न केवल रोका जाये बल्कि इन्हें सार्वजनिक भी किया जाये। 
ये भी शोध का विषय है कि सरकार द्वारा आम आदमी पर खर्च की जाने वाली सुविधाओं और योजनाओं की रकम और सरकारी अपव्ययों का अनुपात क्या है? शायद ही किसी अन्य देश में जनता के पैसे को इस तरह उड़ाया जाता हो। दुख की बात ये है कि ये प्रवृत्ति कम होने की बजाये बढती जा रही है। ऐसे भोजों और शाहखर्ची में कोई भी सियासी दल पीछे नहीं। कोई सियासी दल कभी ये सवाल नहीं उठाता कि ६०-७० रुपये प्रति लीटर पेट्रोल, १००० रुपये के सिलेंडर में आधी से ज्यादा रकम टैक्स की होती है, जो तेल कंपनियां हमेशा घाटे का रोना रोती हैं, उनके न केवल संस्थागत खर्च बेहिसाब हैं बल्कि उनके ज्यादातर आयोजन पांच सितारा और सात सितारा होटलों में होते हैं। 
हाल ही में यूपी के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने बेरोजगारी भत्ता बांटने के लिए एक आयोजन किया, जिसमें बेरोजगारों को एक-एक हजार रुपये बांटे गये। बताते हैं कि जितनी रकम इस आयोजन में बेरोजगारों को बांटने में खर्च की गई, उससे दोगुनी इस आयोजन पर हो गई। 
जिस देश की ७० फीसदी जनता अब भी गरीबी का जीवन जी रही हो, जहां अब भी बड़े पैमाने पर लोगों के घरों में महज एक समय का चूल्हा जलना मुश्किल होता हो, वहां नेताओं और नौकरशाहों का ये  आचरण अशोभनीय है। सियासी सांठ-गांठ के लिए ये शाहखर्ची के लिए ये देश सक्षम नहीं। कारपोरेट भी इस मामले में पीछे नहीं। अपनी शाही लाइफस्टाइल और पार्टियों में वह करोड़ों अरबों बहा देते हैं लेकिन इनमें से कई के संस्थानों में उनके कर्मचारियों को कई महीन वेतन नहीं मिलता। प्रधानमंत्री को सचेत हो जाना चाहिए कहीं उनकी तुलना भी उस नीरो से न की जाने लगे, जो जलते हुए रोम की चिता के बीच आराम से बांसुरी बजा रहा था।

Tuesday, 25 September 2012

यूपीए सरकार का स्वांग - प्रत्यूष मणि त्रिपाठी


हाल ही में यूपीए सरकार ने आर्थिक सुधारों के लिए कदम उठाने का दावा करते हुए आनन-फानन में कई फैसले ले डाले-घरेलू ईंधन गैस की सब्सिडी को एक सीमा के दायरे में ला दिया गया तो पेट्रोल और डीजल के दामों में बढोत्तरी कर दी गई। रिटेल सेक्टर और वायु उड्डयन के क्षेत्र में ५१ फीसदी या ज्यादा एफडीआई को हरी झंडी दे दी गई। ये सब फैसले करने के बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा कि अब हम आर्थिक सुधारों की दिशा में रुक नहीं सकते, लिहाजा ऐसे कदम उठाने जरूरी हो चले हैं।
सबको मालूम है कि यूपीए सरकार के चार साल के कार्यकाल में ने केवल निराशा का माहौल बना है बल्कि घपले - घोटालों का बोलबाला रहा है। एक के बाद एक बड़े घोटाले हुए- कामनवेल्थ गेम्स,  टूजी, आदर्श हाउसिंग सोसायटी और अब कोयला ब्लाक आवंटन में भ्रष्टाचार। यूपीए-२ सरकार की काम करने की रफ्तार बेहद सुस्त हो चली है। फैसले हो नहीं रहे। महंगाई बेतहाशा बढ़ रही है। उसका असर न केवल विकास दर पर पड़ा बल्कि विदेश में भी हमारी छवि व विश्वसनीयता को जबरदस्त धक्का पहुंचा। एक ओर जनता त्रस्त है तो दूसरी ओर सरकार की उदासीनता और गैर जवाबदेही भी उसी गति से बढ़ रही है। लगता ही नहीं कि ये सरकार जनता के हितों के बारे में सोचती है। अब जबकि चुनावों को एक साल शेष रह गये हैं तब वो ये दावा कर रही है कि आर्थिक सुधारों की दिशा में कदम उठाने का समय आ गया है।
कौन इस सरकार के नियंताओं से पूछ सकता है कि जितने घोटाले देश में पिछले चार सालों में हुए उससे देश को कितनी क्षति पहुंची है, करदाताओं के हितों पर किस तरह डाका डाला गया है। आखिर इन घोर अनियमितताओं से क्षति सरकारी कोष की ही हुई। अब अगर सरकार फिर से पेट्रोल, डीजल और घरेलू गैस के दाम बढ़ा रही है और इसे आर्थिक जरूरतों का तकाजा बता रही है तो ये भी जनता से ही धोखा है। इन सबके जरिये जनता की जेब पर ही डाका डलेगा और उससे राजस्व की भरपाई की जायेगी। 
एक करदाता के रूप में ये सबकुछ देखना बहुत पीड़ादायी है। आखिर देश का मध्य वर्ग और निम्न मघ्यम वर्ग का करदाता अपनी मेहनत की कमाई टैक्स के रूप में देता है और उस पर मंत्री, नेता और अफसर मौज उडाते हैं, अनाप-शनाप खर्चे करते हैं और घोटाले करते हैं। क्या देश के नेताओं की कोई जवाबदेही जनता और उसकी खून पसीने की कमाई के प्रति बनती है? पहले राजस्व को अपनी शाहखर्ची में खाली कर दो और फिर इसकी भरपाई के लिए करदाता पर कर का बोझ और बढाते चले जाओ। डीजल, पेट्रोल के दामों में बढोतरी का असर बेशक उन लोगों पर तो कतई नहीं पड़ेगा, जो करोड़ों की गाडिय़ां खरीदते हैं और उस पर चलते हैं, उनके लिए पांच रूपये प्रति लीटर डीजल में वृद्धि चिंता की बात नहीं। लेकिन बाकी लोग जिसमें किसान, आम जनता और मध्यम वर्ग आदि शामिल हैं, महंगाई और कुशासन की चक्की में पिसते ही जा रहे हैं।
अगर सरकार सुधारों पर वाकई गंभीर है तो उसे अपने घर से सुधार करना चाहिए, अपने खर्चों में कमी करना चाहिए। करदाताओं के पैसे पर अनाप शनाप खर्चों की अहमियत समझनी चाहिए। अगर उसकी सियासी मंशा ठीक होगी तभी आर्थिक सुधारों के परिणाम भी सही तरीके से सामने आ सकेंगे।
देश में वर्ष १९९१ में शुरू हुए आर्थिक उदारीकरण के दौर में जब विदेशी पूंजी निवेश का माहौल बना तो यकीनन इससे देश में संपन्नता आई, सुख सुविधा बढ़ी। इसका लाभ आम लोगों को भी मिला, उनका जीवनयापन बेहतर हुआ, कमाई बढ़ी। आर्थिक उदारीकरण के माहौल का सकारात्मक पक्ष दिखने लगा। ऐसे में इसके विरोध का कोई औचित्य नहीं बनता लेकिन ये सरकार की जिम्मेदारी बनती है कि निराशा की जो गहरी चादर अब पूरे देश में फैल चुकी है, उसे सही मंशा के साथ छांटने की कोशिश की जाये। सरकार की नीयत साफ होनी चाहिए, उसके काम और बातों में सत्यता होनी चाहिए। मौजूदा समय में देश की आम जनता का विश्वास सरकार और उसके नेताओं, मंत्रियों और अफसरों पर से बिल्कुल उठ चुका है। हालांकि ये बात भी तय है कि आर्थिक सुधारों की गाड़ी को रोकना अब किसी सरकार की वश की बात नहीं। जो भी पार्टी सरकार में आयेगीे, उसे यही कदम उठाने होंगे और शायद यही समय की जरूरत भी है। 
वैसे अगर ये लग रहा है कि सरकार अब जो भी कदम उठा रही है, उसके पीछे वह केवल एक साल बाद होने वाले चुनावों के फायदों को देख रही है तो ये गलत नहीं है। जो सियासी दल नये फैसलों का विरोध कर रहे हैं, उनके विरोध में सदाशयता से ज्यादा चुनावी नूरा कुश्ती ज्यादा है। आप खुद देखिये पिछले चार सालों में केंद्र सरकार से जुड़ी हर सेवा और हर कामकाज में किस तरह गिरावट आई है। कार्यकुशलता शब्द केंद्र सरकार की हंसी उड़ाता लगता है। रेल मंत्रालय को ही ले लीजिये। पिछले चार सालों में रेल सेवाओं की हालत लचर होती गई, दुर्घटनाएं बढ़ीं और इसके कामकाज को  उपेक्षा के तराजू पर चढा दिया गया। रेल मंत्रालय कहां से चल रहा है, कौन चला रहा है, क्या फैसले  हो रहे हैं, कार्य निष्पादन क्यों नहीं हो पा रहा है-इसका जवाब खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के पास भी नहीं होगा। एेसा ही हाल दूसरे मंत्रालयों और वहां हो रहे कामकाज का है। 
ऐसे में न तो सरकार का इकबाल समझ आता है और न ही मंशा-हाल के फैसलों के बाद सरकार का अंदाज शहीद होने का स्वांग ज्यादा लगता है। दरअसल यूपीए सरकार के पास अब खोने के लिए कुछ बचा भी नहीं। उनकी रणनीति अब जनता के बीच जाकर ये रोना रोने की है कि वो तो काम करना चाहते थे लेकिन घटक दलों और विपक्ष ने नहीं करने दिया। दुर्भाग्य ये भी कि यूपीए के मंत्री गैरजिम्मेदाराना बयान देने से बाज नहीं आ रहे। बाद में छीछालेदार होने पर ये कहकर मुंह चुराने लगते हैं कि हमने तो मजाक किया है, जैसा हाल में गृह मंत्री सुशील शिंदे ने किया। माफ कीजियेगा शिंदे जी, गृह मंत्री होने के नाते आपका काम गंभीरता से जुड़ा है न की मजाक से-आप कोई विदूषक नहीं हैं और न आपको मजाक करने के लिए गृह मंत्री बनाया गया है। सरकार मजाक से नहीं चलती। मजाक से चलने वाली सरकारें मजाक बनकर ही रह जाती हैं।

Wednesday, 19 September 2012

पदोन्नति में आरक्षण का सच ?

नौकरियों में पदोन्नति में आरक्षण से संबंधित विधेयक को संसद में पेश किया जा चुका है। इसके साथ ही इसके पक्ष और विपक्ष में सुर-आलाप भी शुरू हो चुके हैं। पदोन्नति में आरक्षण का मसला कितना सही और कितना गलत है, इसके राजनीतिक निहितार्थ और स्वार्थ कितने हैं, ये जानने से पहले हमें भारतीय लोकतंत्र के संवैधानिक ढांचे में आरक्षण के सफर पर भी निगाह दौड़ा लेनी चाहिए। ये देखना चाहिए कि जब ये आया उस समय स्थितियां क्या थीं, क्या कहा गया था और फिर इसे किस तरह बरकरार रखते हुए अब इसे सियासी फायदे का हथियार बना लिया गया है।
२६ जनवरी, १९५० को हमारे देश में संविधान लागू हुआ। इससे पहले इसके एक एक बिंदू पर गहन विचार विमर्श हुआ। संविधान सभा के सामने जब आरक्षण के मसले को पेश किया गया तो इसको लेकर जबरदस्त बहस छिड़ी। आप हैरान हो सकते हैं कि इसका सबसे ज्यादा विरोध किसकी ओर से हुआ था-खुद संविधान समिति के अध्यक्ष डा. भीमराव अंबेडकर ने इसका सबसे ज्यादा विरोध किया था। उनका कहना था कि ऐसा करके हम अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों को और अपंग बना देंगे, एक बार अगर हमने उन्हें आरक्षण की बैशाखी दे दी तो वो कभी अपने पैरों पर खड़ा होना नहीं सीख पाएंगे। खैर लंबी बहस और चर्चा के बाद आरक्षण को कानून में शामिल कर लिया गया। लेकिन तब इसे महज दस सालों यानि १९५० से १९६० तक के लिए लाया गया। सोच ये थी कि इन दस वर्षों में जब अनुसूचित जाति और जनजाति वर्ग के लोग प्रशासनिक सेवाओं और संघीय नौकरियों में आयेंगे तो उनकी सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक हैसियत बढेगी, जिससे वो समाज की मुख्य धारा में शामिल हो जाएंगे-इसके बाद आरक्षण की कोई जरूरत नहीं रहेगी। संविधान में तब अनुसूचित जाति को १५ फीसदी और अनुसूचित जनजाति को ७.५ फीसदी आरक्षण की व्यवस्था की गई। 
लेकिन इसके बाद राजनीतिक हितों के चलते हर दस साल पर आरक्षण को आगे बढ़ाया जाता रहा। हालांकि इस विषय पर दायर तमाम याचिकाओं के जवाब में सुप्रीम कोर्ट ने भी माना है कि संविधान के अनुच्छेद १४-१८ में जिस समानता के मौलिक अधिकार की बात कही गई है, आरक्षण उस दिशा में प्रभावी भूमिका निभा रहा है। अदालत के अनुसार जो लोग इसका विरोध कर रहे हैं वो सही नहीं है। आरक्षण को सकारात्मक भेदभाव के रूप में लिया जाना चाहिए। केवल भारत ही नहीं बल्कि दुनिया के तमाम मुल्कों में आरक्षण अलग अलग तरीके से दिया जा रहा है, एसे देशों में अमेरिका और ब्रिटेन भी शामिल है। 
इसमें कोई शक नहीं कि कमजोर वर्ग को आरक्षण  मिलना चाहिए। लेकिन ये भी सही है कि आरक्षित श्रेणी में आरक्षण के लाभ से इसी के  अंदर एक भद्रलोक पैदा हो गया है। इसका लाभ कुछ परिवारों को ही बार बार मिल रहा है, कहा जा सकता है कि इसके लाभ का दायरा आरक्षित श्रेणी में भी सीमित रह गया है। वाकई जिन लोगों को इसका लाभ मिलना चाहिए था, जो दबे कुचले हैं, गांवों और दूरदराज में रहते हैं वो अब भी इससे वंचित हैं, वो पिछड़े ही रह गये हैं। लिहाजा जिस आरक्षण को महज दस सालों तक रखकर खत्म कर देना था वो ६० सालों से चला आ रहा है। कहा जा सकता है कि आरक्षण का उद्देश्य प्राप्त नहीं हो सका है, इसकी वजह लगातार बढ़ती हुई जनसंख्या भी हो सकती है, लेकिन अब आरक्षण की व्यवस्था में बदलाव की जरूरत है। इसका लाभ वहां तक पहुंचे, जिनतक पहुंचने के लिए इसे बनाया गया था। एक व्यक्ति या परिवार को इसका लाभ हर बार ही नहीं मिलना चाहिए। आरक्षण को व्युत्क्रम उत्पीडन नहीं बनने देना चाहिए। यानि अगर कोई अगर हजारों साल तक शोषित रहा है तो जरूरी नहीं कि वो अब हजारों साल तक दूसरों का शोषण करता रहे। समाज को वास्तव में समान बनाने का प्रयास करना है न कि एक ही व्यक्ति या परिवार को एक ही लाभ बार बार देने की कोशिश करना है और न समाज में पुरानी विसंगतियां और वैमनस्य के नये बीज को फिर से बोने देना है। 
थोड़ा पीछे लौटते हैं कि पिछड़ों को आरक्षण देने के लिए नेहरू के शासनकाल में १९५३-५५ में काका कालेलकर आयोग का गठन हुआ था, जिसकी रिपोर्ट को खारिज कर दिया गया था। इसके बाद १९७९ में मोरारजी भाई देसाई ने विंदेश्वरी प्रसाद मंडल आयोग का गठन किया। लेकिन इस आयोग ने भी सुनियोजित तरीके से सामाजिक और आर्थिक सर्वेक्षण नहीं किया और जनसंख्या के पुराने आंकड़ों पर रिपोर्ट बनाई। जब इंदिरा गांधी केंद्र सरकार में लौटीं तो उन्होंने इसे सदन के पटल पर रखा  लेकिन इसे नामंजूर कर दिया गया। १९८९ में वी पी सिंह की सरकार बनी तो उसने इसे लागू कर दिया। मामला सुप्रीम कोर्ट गया और तब १९९२ में कोर्ट ने फैसला दिया कि २२.५ फीसदी आरक्षण का जारी फैसला तो ठीक है। लेकिन इसके अलावा आरक्षण के जो प्रावधान किये गये हैं वो संविधान सम्मत, तर्क सम्मत और प्रभावी होने चाहिए। उसने ये भी कहा कि बेशक ओबीसी की पहचान होनी चाहिए लेकिन जाति इसकी एकमात्र आधार नहीं होनी चाहिए। ओबीसी की पहचान के लिए उसने एक अलग आयोग के गठन की बात की।
लिहाजा पटना उच्च न्यायालय के अवकाश प्राप्त न्यायाधीश आर एन प्रसाद की अध्यक्षता में नया आयोग बना। जिसने अपनी रिपोर्ट में क्रीमीलेयर का सिद्धांत दिया। 
हालांकि हाल ही नौकरियों के तहत पदोन्नतियों में आरक्षण को लेकर सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश नागराज का फैसला (२००६) भी खासा अहम रहा, जिन्होंने व्यवस्था दी कि नौकरियों में प्रोन्नति में आरक्षण हो सकता है लेकिन उच्च पदों पर इसका आधार आनुपातिक होना चाहिए। इससे प्रशासनिक कार्यक्षमता प्रभावित नहीं होनी चाहिए।
अब वर्ष २०१४ के चुनावों को अपने फायदों और वोटबैंक भुनाने के चलते मौजूदा सरकार आनन फानन में इसे विधेयक के तौर पर सदन में लेकर आई है। इसके जरिए ये सरकार अपने भ्रष्टाचार और नाकामी को छिपाना चाहती है। और फिर समाज को बांटने और उसे आपस में लड़ाने का ही कुचक्र रचा जा रहा है।