Wednesday, 7 August 2013

दुर्गा शक्ति के बहाने आईएएस भी सोचें


स्वतंत्रता के बाद सरदार पटेल ने भारतीय सिविल सेवाओं का भारतीयकरण शुरू किया था। उन्होंने सचिवालय प्रशासन व्यवस्था का पुनर्गठन किया और आजादी के पूर्व नौ अखिल भारतीय सेवाओं को खत्म कर केवल दो आईएएस और आईपीएस को अखिल भारतीय सेवा के रूप में बनाये रखा। भारतीय वन सेवा का गठन बहुत बाद में 1968 में हुआ। ये तीसरी अखिल भारतीय सेवा बनी। तब से आजतक अखिल भारतीय सेवाओं, खासकर आईएएस संवर्ग ने न केवल देश को प्रशासनिक नेतृत्व प्रदान किया बल्कि देश को राजनीतिक एकता के सूत्र में बांधा।
नीति निर्माण से नीति क्रियान्वयन में उनकी शानदार भूमिका रही। जनता के बीच सरकार की सफलता और विफलता का पैमाना आईएएस संवर्ग की कार्यशैली और व्यवस्था से निर्धारित होता रहा है। जनता की नजरों में आईएएस संवर्ग ही सरकार का प्रतिरूप है लेकिन 1975 के आपातकाल के बाद इतनी तेजी से सिविल सेवा का राजनीतिकरण हुआ है और जिस प्रकार नौकरशाही राजनीतिक, जातिगत और दलीय आधारों पर बंटती गई, आज उसी का परिणाम दुर्गा शक्ति नागपाल मामले में सामने आया। वह आईएएस संवर्ग की  पहली अफसर नहीं,जिनके साथ अन्याय हुआ है बल्कि इसके कई उदाहरण हैं। 
लेकिन जिस तरह से आईएएस संवर्ग ने अपने राजनीतिक स्वामियों के सामने आत्मसमर्पण किया और नतमस्तक हुए हैं, उससे ईमानदार अफसरों को प्रशासनिक उत्पीडऩ झेलना पड़ता है। अधिक आकर्षक पदों पर नियुक्ति और राजनीतिक स्वामियों के निकट आने की प्रवृत्ति के कारण आईएएस संवर्ग के लगातार कमजोर होते जाने से न केवल सिविल सेवाओं की प्रतिष्ठा गिरी है बल्कि उनकी विश्वसनीयता भी संदिग्ध हुई है।
आज स्वयं आईएएस संवर्ग को भी सोचना होगा कि आखिरकार जिसे कभी भारत का स्टील फ्रेम कहा जाता था, वो इतना जर्जर और कमजोर क्यों हो गया? सिविल सेवाओं को जो संवैधानिक संरक्षण हासिल है, उसके तहत जब तक दोष साबित नहीं हो जाये, तब तक उसके खिलाफ ट्रांसफर से ज्यादा कोई कार्रवाई नहीं की जा सकती, वो भी लोकहित में।
लेकिन गत कुछ दशकों से दल विशेष की सरकार बनने पर राजनीतिक निकटताओं के चलते कुछ आईएएस अफसर इतने महत्वपूर्ण और प्रभावी हो जाते हैं कि वे ही सचिवालय, मंत्रालय से लेकर जिला स्तर तक समूची सरकार चलाते हैं। शेष अफसर प्रशासनिक हाशिये पर धकेल दिये जाते हैं। तब आईएएस एसोसिएशन कुछ कहती और करती दिखाई नहीं देती। 
याद नहीं आता कि कभी आईएएस एसोसिएशन ने सर्वसम्मति से ये फैसला किया हो कि हम अपने सियासी स्वामियों का कोई गैर कानूनी और अवैध आज्ञापालन नहीं करेंगे। हम अपने सीनियर अफसरों से प्रशासनिक शुचिता का पाठ सीखेंगे, अधीनस्थ को नेतृत्व, मार्गदर्शन और देश के विकास में आगे बढऩे की सीख देंगे। ऐसी मिसाल फिलहाल सामने नहीं दिखती, जब आईएएस एसोसिएशन ने गलत सियासी निर्णयों का विरोध किया हो।
ऐसे में वह फिर चाहें खेमका हों या फिर संजीव चतुर्वेदी या फिर दुर्गा शक्ति, उनको अपने कानूनी कार्यों के लिए दंड भुगतना पड़ता है। ये उस क्षरण का प्रतीक है जो राजनीतिक और सामाजिक जीवन में गहरे तक प्रवेश कर गया है। इसलिए ये आईएएस एसोसिएशन के लिए  आत्मचिंतन और आत्ममंथन का विषय है। जब मंथन हो तो अमृत-विष दोनों ही निकलते हैं। वहीं सियासी वर्ग को ये सोचना होगा कि वो जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों के रूप में सीधे और प्रत्यक्ष रूप से जनता के लिए जवाबदेह हैं। उन्हें ऐसे विषयों को प्रतिष्ठा का विषय नहीं बनाना चाहिए और हठधर्मिता छोडक़र कुशल राजनीतिक नेतृत्व देना चाहिए। 
लेकिन इसके ठीक विपरीत वो जनप्रतिनिधि कानून पर सुप्रीमकोर्ट के निर्णय और आरटीआई के दायरे से खुद को बाहर रखने के लिए लामबंद हो रहे हैं। ये शुभ संकेत नहीं है। राजनीतिक वर्ग और सिविल सेवक एक दूसरे के पूरक और सहयोगी हैं न की प्रतिद्वंद्वी, विरोधी या प्रतिस्पर्धी। इन्हें एक-दूसरे के साथ सामंजस्य से कार्य करना होगा अन्यथा देश का सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक विकास अवरूद्ध होता रहेगा।

Tuesday, 11 June 2013

नक्सलवाद की विचारधारा या आतंक की चुनौती


साठ के दशक के उत्तरार्ध में चारू मजुमदार और अन्य साम्यवादी विचारकों द्वारा नक्सलवाड़ी जैसे छोटे गांव में जिस वैचारिक क्रांति का बीजारोपण किया गया था, अब वह आतंकवाद का विष वृक्ष बन गया है।  समस्या ये है कि विचारधारा को व्यवस्था के साथ जोड़ा गया है कि ये एक दूसरे के पर्याय हों किंतु समस्या के अपने राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक आयाम हैं। अब ये भूमि सुधारों और आदिवासी अधिकारों की समस्या नहीं बल्कि संविधान, राज व्यवस्था और लोकतंत्र के लिए एक बड़ी चुनौती बन चुकी है। छत्तीसगढ़ के बस्तर इलाके में जिस तरह नक्सलियों ने भीषण हमला करके राज्य के कांग्रेसी नेतृत्व का एक तरह से सफाया ही कर दिया, उससे एक बार फिर  भारतीय लोकतंत्र, संविधान और विधि व्यवस्था पर करारा आघात लगा है। 
2009-१0 में छत्तीसगढ़ में नक्सलियों ने अद्र्धसैन्य बलों के जवानों का कत्लेआम किया था और उनकी गतिविधियां बड़े पैमाने पर देखी गईं थीं। लेकिन पिछले एक  -डेढ़ सालों से छत्तीसगढ़  में उनकी गतिविधियां शिथिल पड़ी थीं। उसका कारण उनके खिलाफ सख्ती से अभियान चलाया जाना  भी हो सकता है। ऐसा लगता है कि पिछले कुछ समय से नक्सली शांत रहकर अपनी ताकत को बढ़ाने में लगे थे। न केवल  इस समय का उपयोग उन्होंने अपने कैडर में भर्ती के रूप में किया बल्कि हथियारों का जखीरा भी इकट्ठा कर लिया- ये बड़ा सवाल है कि इतने बड़े पैमाने पर इन नक्सलियों को आर्थिक मदद कहां से मिलती है? कहां से वो अत्याधुनिक विदेशी हथियार जमा कर पाये? कैसे उन्हें तमाम  आपूर्ति घने जंगलों के बीच पहुंचती है? 
अगर आप इन सवालों पर गौर करें तो लगेगा ये हमारे शासन और खुफिया प्रणाली की घोर विफलता है कि हम एक सीमित क्षेत्र में मौजूद नक्सलियों  की गतिविधियों पर भी नजर नहीं रख पा रहे हैं। इसी विफलता के चलते लाल आतंक का क्षेत्र फैलता चला जा रहा है। जो नक्सलवाद सत्तर के दशक के आते आते बंगाल में दम तोड़ता लग रहा था वो अब दानवाकार रूप में बंगाल, आसाम, आंध्र, उडीसा, झारखंड, बिहार,महाराष्ट्र,छत्तीसगढ़ और उत्तर प्रदेश तक फैल चुका है। इसे राजनीतिक, प्रशासनिक और खुफिया तंत्र की घोर विफलता ही कहेंगे और साथ में इनसे निपटने में दृढ इच्छाशक्ति का अभाव भी।
छत्तीसगढ़ में नक्सलियों का वर्चस्व मुख्य रूप से आदिवासी बहुल इलाकों के जंगली क्षेत्रों में है। सच कहा जाये तो हमें सीमा पार दुश्मनों से कहीं ज्यादा खतरा इस आंतरिक फलते फूलते आंतकवाद से है।  शुरू में नक्सली आंदोलन आदिवासियों की वन संपदा के अधिकारों को लेकर किया गया लगता था लेकिन अब ये राष्ट्रविरोधी स्वरूप ले चुका है। आज नक्सली न केवल वन संपदा का दोहन कर रहे हैं बल्कि हर तरह की आपराधिक गतिविधियों में लिप्त हैं। इनकी हिंसा के तौर तरीकों को देखकर लगता है कि इनका नेतृत्व करने वाले घोर मनोविकृतियों से भी ग्रस्त हैं। किसी भी सभ्य समाज के लोग हिंसा पर न तो आनंद का उत्सव मना सकते हैं और न ही लोगों की बर्बर तरीके से हत्या कर सकते हैं। विदेशी ताकतों से चोरी छिपे मिल रही मदद के अलावा कतिपय बुद्धिजीवियों के समर्थन ने हमेशा उनके हौसलों को बढ़ाया है। ये बुद्धिजीवी किस तरह से नक्सलियों के हिंसा के तौर-तरीकों का समर्थन कर सकते हैं और इसे सही ठहरा सकते हैं कि नक्सली सही राह पर हैं और जो कुछ कर रहे हैं वो जायज है। ताजा आंकड़े ये बताते हैं कि पिछले दो सालों में छत्तीसगढ़, झारखंड, उड़ीसा और आंध्र प्रदेश में नक्सली कैडर में जमकर भर्तियां हुई हैं, उनकी तादाद खासी बढ़ चुकी है।  
मवाद जब गहरे पैठा हो तो शल्य क्रिया करनी ही पड़ती है। छोटे - मोटे सुधारों और उपचार से अब इस विषबेल और रोग का समाधान नहीं हो सकता। सियासी दलों पर दोषारोपण करने की बजाये ये कठोर कार्रवाई का समय है। अब निर्णायक  कदम उठाने का समय आ चुका है। हालांकि सियासी स्तर पर लोगों की आंख तब खुली जब खुद राजनीतिक लोग हमले का शिकार बनने लगे हैं,  तब उनमें  एकजुटता आयी और समस्या की गंभीरता के प्रति चिंता हुई। 
जब नक्सली सुरक्षा बल के जवानों को मार रहे थे तब तक राजनीतिक वर्ग वोट बैंक के हिसाब से गुणा-भाग और समीकरण बनाकर योजनाएं और नीतियां बना रहा था। अब जब वो स्वयं भस्मासुर के शिकार बने तो  नक्सलवाद की समस्या को लेकर साथ मिलकर लडऩे का स्वांग कर रहे हैं। भारत को स्पष्ट समझ लेना चाहिए कि शहीद जवानों के शवों में बम प्लांट करने वाले, स्कूलों, अस्पतालों और सडक़ों को बारूदों से उडाऩे वाले, सरकारी और निजी उद्योगों से हफ्ता वसूली करने वाले कभी राजनीतिक विचारक नहीं हो सकते  और न ही इस देश को अपना समझते हैं। इसे  भारत के  खिलाफ युद्ध के तौर पर ही देखना चाहिए न कि सिर्फ एक राजनीतिक या  आर्थिक समस्या के रूप में। 
ये खुले तौर पर भारतीय राज्य व्यवस्था और संप्रुभता को  चुनौती है। इसमें कोई दो-राय नहीं है। बेशक आदिवासी हितों की रक्षा होनी चाहिए। पिछड़े क्षेत्रों का विकास होना चाहिए। जल, जंगल और जमीन से   जुड़े अधिकारों को भी फिर से परिभाषित कर इसमें स्पष्टता लाई जानी चाहिए लेकिन नक्सलियों  के आगे समर्पण एक कमजोर राष्ट्र का घुटने टेकने जैसा होगा। इसलिए जरूरत कठोर कार्रवाई की है न कि वादों, आश्वासनों और दिखावटी कार्रवाइयों की। संघ और राज्य सरकार कोई भी हो, ऐसी लड़ाई में हारता भारत ही है।     



Tuesday, 14 May 2013

फेसबुक बन गया फेकबुक

फेसबुक क्रांति जितनी तेजी से फैली उतनी ही तेजी से अब थमने लगी है। इस ठहराव के पीछे कई कारण मौजूद है मगर उससे पहले ये जानना जरुरी है कि आखिर ऐसा क्या चुम्बकीय आकर्षण रहा होगा जो युवा इसकी तरफ खींचता ही चला गया। समाज और जीवन के बढते तनाव में फेसबुक जैसे मंच पर हर कोई सहज रुप से बातचीत के लिए उपलब्ध रहने लगा। जो अक्सर वास्तविक जीवन में छूट सा रहा था। 
तीन महत्वपूर्ण तथ्य है जो इस बात की पुष्टि भी करते है। इंस्टेंट कनेक्टिविटी जो कहीं भी कभी भी समाज, देश व दुनिया से जोडती है। दूसरा है इंडिविजुअलाईज्ड अटेंशन जिसमें व्यक्ति जैसी चाहै वैसी अभिव्यक्ति कर सकता है। तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण है सोशलाइजेशन में कमी क्योंकि अपनी व्यस्तताओं के चलते धीरे धीरे लोग खासकर युवा सामाजिक परिवेश से दूर होता चला गया और फेसबुक पर समय व्यतीत करने लगा। युवा तो खाने पीने जैसे दैनिक काम छोडकर इसके व्यसन के आदी हो गऐ।
फेसबुक के साथ ये जुडाव तो होना ही था क्योंकि 1990 के दशक के बाद की सूचना क्रांति के बाद फेसबुक मूवर आफ पब्लिक ओपिनियन बनकर उभरा। हर वर्ग के लोग इसका इस्तेमाल करने लगे। मास मोबलाइजेशन बढी है। विश्व  के विभिन्न हिस्सों की जानकारियां सहज ही इस एक मंच पर मित्रों व परिचितों के बीच साझा होने लगी। असम हिंसा, मिस्र क्रांति, दामिनी केस जैसे ना जाने कितने ही उदाहरण मौजूद है जो सोशल नेटवर्क के कारण सामने आऐ। काफी शॉप व कैंटीन की चर्चाऐं कमेंट्स व पोस्ट में तब्दील होने लगी और सहसा ही लोग इसके मोहपाश में फंसते चले गये।
फेसबुक रुपी दोधारी तलवार का अब खुमार कम होने लगा है क्योंकि लोग वास्तविक एवं आभासी दुनिया के इस फर्क को समझने लगे है और मानने लगे है कि इसका इस्तेमाल अधिक सार्थक नहीं है। यहां विचारों को फैंटेसाइज तो किया जा सकता है मगर उनको साकार होते देखना नामुमकिन है। यहां अभिव्यक्तियों के लिए तो जगह है मगर ढांढस मिले यह कहना मुश्किल है। 
साथ ही अगर देखा जाऐं तो जो लोग ग्रामीण पृष्ठभूमि से है या टेक सेवी नहीं है वो तो किसी भी तरह इससे जुड नही पाएंगे।हालांकि फेसबुक तकनीक से लैस है मगर देश के विकास में सहायक नही हो पायी। नकली अकाऊंट, गलत सूचनाऐं, गैरकानूनी इस्तेमाल, गलत अफवाहों के कारण लोग खुद को ठगा सा महसूस करने लगे। जिसका प्रभाव सरकारी मशीनरी पर भी पडने लगा। साइबर ला सामने आऐ, आईटी कानून बनने लगे जिसने कई प्रकार के प्रतिबंध इस माध्यम पर लगा दिए। अमेरिका में हर महीने लगभग 6 मिलीयन लोग इस वर्चुअल वल्र्ड से बाहर आ रहे है और अब शायद भारतीय भी इस यथार्थ सत्य को समझने लगे है।




Wednesday, 10 April 2013

समय चेतने और चेतावनी देने का

नि:संदेह राजनीति ही अर्थनीति को तय करती है। विशेषकर लोकतंत्र में ये अत्यंत आवश्यक हो जाता है किंतु जब वोटबैंक की राजनीति, बाजार और अर्थतंत्र को इस हद तक प्रभावित करने लगे कि सामान्य जनजीवन पर नकारात्मक प्रभाव हो और भुगतान संतुलन में संकट की स्थिति आ जाये तो ये आर्थिक नहीं बल्कि प्रशासनिक विफलता भी है। स्मरण हो कि 1989-90 में भारत के सामने जो आर्थिक संकट उत्पन्न हुआ था उसके लिए चंद्रशेखर सरकार को भारतीय रिजर्व बैंक में रखे सोने के भंडार को बैंक आफ इंग्लैंड में गिरवी रखना पड़ा था। इसके बाद अपमानजनक शर्तों पर इंटरनेशनल मानेटरी फंड से ऋण तो मिला लेकिन उसके बाद देश आर्थिक संकट की चुनौती से पार पाने में सफल भी रहा और उसने संभावनाओं के द्वार भी खोले।

24  जुलाई 1991 को नई आर्थिक और औद्योगिक नीति की घोषणा तत्कालीन वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने प्रधानमंत्री एन. नरसिम्हराव के नेतृत्व वाली सरकार के दौरान की किंतु दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति ये है कि वर्तमान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को जब सरकार का मुखिया बनने का अवसर वर्ष 2004 में हासिल हुआ तब से पीएम के तौर पर ये  उनका दूसरा कार्यकाल है और अपने इन दो कार्यकालों में वह वित्तीय प्रशासक के रूप में काम करने में नाकाम रहे। उन्हें एक लंबा और सुनहरा अवसर हासिल हुआ लेकिन इसके बावजूद भारत की आर्थिक स्थिति गंभीर है और ये चिंता का विषय है।

एफआरबीएम अधिनियम के लक्ष्यों को प्राप्त नहीं किया जा सका है। राजकोषीय घाटा बेतहाशा बढ़ा। भ्रष्टाचार के अनेक मामले सामने आये। लोकलुभावन नीतियों परअनावश्यक और अत्यधिक धन खर्च किया गया और भारत को महज एक उपभोक्ता बाजार में बदल दिया गया। ये आर्थिक नहीं बल्कि राजनीतिक फैसला था, इसलिए सवाल ये है कि इस समस्या से दो चार कैसे किया जाये क्योंकि इसके लिए जितना जिम्मेदार केंद्र है उतना ही राज्यों का कुप्रबंधन जवाबदेह है। अगर समग्र प्रशासनिक आर्थिक सुधार लागू नहीं किये जाते तो भारत निश्चित रूप से गंभीर आर्थिक संकट की ओर तेजी से बढ़ रहा है।

मौजूदा आर्थिक स्थिति के चलते न केवल फिर से भुगतान संतुलन का संकट पैदा हो गया है बल्कि राजकोषीय प्रबंधन से जुड़ी समस्याएं भी सामने आई हैं और ये आर्थिक विफलता से कहीं ज्यादा राजनीतिक और प्रशासनिक विफलता का संकेत देती है।जब मवाद गहरे पैठा हो तो शल्यक्रिया करनी ही पड़ती है,तब छोटी मोटी औषधियों  से काम नहीं चलता। आज भारत की भी इसी तरह की शल्यक्रिया करने की आवश्यकता है। 
जिसके लिए पांच क्षेत्रों में गंभीर और कठोर कदम उठाने होंगे-


1. सामाजिक-आर्थिक अध:संरचना का विकास 
2. लोकलुभावन और गैर जरूरी योजनाओं में कटौती
3. केंद्र और राज्य सरकार के बजट पर पर्याप्त और प्रभावी नियंत्रण 
4. कर के दायरे में अधिकाधिक लोगों को लाना
5. नौकरशाही में सुधार और उसके आकार को दुरुस्त करना  

ब्रिक्स, जी- 60 या इस प्रकार अनेक क्षेत्रीय मंचों में भारत की गौरवपूर्ण स्थिति लगातार महत्वहीन होती जायेगी। इसलिए ये कुछ करने का समय है न कि सिर्फ चेतने  और चेतावनी देने का। जब तक ये कदम उठाये नहीं जाते, उभरती हुए भारतीय आर्थिक महाशक्ति का सपना दिवास्वप्र ही रह जायेगा।  

Sunday, 10 March 2013

बजट के साथ इसका असरदार क्रियान्वयन भी जरूरी


बजट महज आंकड़ों का लेखाजोखा नहीं बल्कि सामाजिक-आर्थिक विकास का उपकरण भी होता है। 1860 में तत्कालीन वायसराय  के कार्यकारी  अधिकारी  जेम्स विल्सन ने भारत में पहला बजट बनाया था..तब से लेकर अब तक भारत में 80 से अधिक बजट पेश किये जा चुके हैं। पिछले 150 सालों में बजट की  प्रक्रिया भी कई बदलावों से गुजरी..ये पहले अंशकालिक हुआ करता था..फिर पूर्णकालिक बना। लेकिन देश के आजाद होने से लेकर अब तक  बजट आमतौर पर राजनीतिक घोषणापत्र ज्यादा रहा है, ये देश की जनाकांक्षाओं और अर्थव्यवस्था को जागृत करने वाला दस्तावेज नहीं बन सका। यद्यपि विकासशील देश के रूप में बजट राष्ट्र में संजीवनी का महत्व रखता है।  इस बार भी बजट पेश किये जाने से पहले इससे तमाम अपेक्षाएं थीं, साथ ही ये उम्मीद भी कि ये बजट गंभीर आर्थिक हिचकोले लेते हुए इस समय में ऐसा बजट होगा, जिससे देश के आर्थिक परिदृश्य में सुधार के दूरगामी परिणाम होंगे, लेकिन इस बजट ने निराश ज्यादा किया है। 
अगर बजट के आंकड़ों में नहीं जाएं और तथ्य, आधार और सैद्धांतिक चर्चा की कसौटियों पर बजट को कसें तो इससे ये उम्मीदें थीं......

1. इसके जरिए आर्थिक सुदृढता का प्रयास किया जायेगा
2. ये रोजगारपरक होगा, इससे ज्यादा रोजगार सृजित हो सकेंगे
3. ये बजट कुछ ऐसा होगा, जिससे बढ़ती  मुद्रास्फीति पर नियंत्रण हो सकेगा
4. उद्योग और आधारभूत ढांचे को प्रोत्साहित करने वाला होगा
5. भारत की शर्तों पर प्रत्यक्ष विदेशी निवेश यानि एफडीआई को  प्रोत्साहन देगा...

इसमें वित्तमंत्री ने दो संकेतों पर बेशक अमल किया। हो सकता है कि देखने में ये बजट  उम्मीदें जगाने वाला लगे लेकिन  इसके अधिकांश हिस्से में केवल प्रावधान ही ज्यादा किये गये हैं।  आर्थिक सुधारों के नाम पर राजनीतिक निहितार्थों की चाशनी में इसे परोसा गया है। मसलन इस बजट में जन कल्याणकारी योजनाओं पर बहुत जोर देने की बात कही गई है..मसलन  मनरेगा, अल्प संख्यक कल्याणकारी, अनुसूचित जाति और जनजाति को ज्यादा धन आवंटित बढ़ाने की  घोषणाएं की गई हैं, इसी तरह से कुछ और योजनाओं में लंबी चौड़ी घोषणाएं की गईं। यहां ये समझ लेना जरूरी है कि केवल ये सब कर देने भर से जनहितैषी बजट नहीं बन जाता। मूल समस्या तो इसके क्रियान्वयन की है। जब तक लक्षित वर्ग तक योजनाओं का लाभ पूरी तरीके से नहीं पहुंचे तो ऐसे बजट का क्या मतलब? बल्कि इनके मद में धन आवंटन बढाने से लूट-खसोट और भ्रष्टाचार को ही बढावा मिलेगा..लक्षित वर्ग का हाल वही का वही रहेगा। गौरतलब है कि हमारे पूर्व प्रधानमंत्री  स्वर्गीय राजीव गांधी, मौजूदा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कांग्रेस के युवा नेता राहुल गांधी भी स्वीकार कर चुके हैं कि तमाम योजनाओं  में लक्षित वर्ग तक पहुंचने वाले फायदों के तहत एक रुपये में महज दस पैसा ही वांछितों तक पहुंच पाता है।

ऐसे में बजट में लंबी चौड़ी घोषणाओं की बजाये जरूरत इनके क्रियान्वयन के लिए आर्थिक, प्रशासनिक, पुलिस सुधारों की है..और ये सुनिश्चित करने की है कि बजट का फायदा  वाकई लक्षित वर्ग तक हो और देश के विकास में साफ साफ नजर भी आये। हालत ये है कि देश की जनता को जन कल्याणकारी योजनाओं का लाभ कम मिल रहा है बल्कि धनराशि में लूट ज्यादा हो रही है, दुर्भाग्य से इसे बजट बनाये जाते समय ध्यान में नहीं रखा जाता। गौरतलब है कि अर्थव्यवस्था के लिए सुशासन बड़ी कुंजी है। वर्ष 2014 के चुनावों के पहले  अपेक्षा थी कि सरकार भ्रष्टाचार पर लगाम लगायेगी, महंगाई कम करेगी और सुशासन पर ध्यान देगी, लेकिन ऐसा दिख नहीं रहा। हाल ही में कैग की रिर्पोट के जरिए किसानों  को कर्ज माफी में बड़े घोटाले का एक अन्यमामला सामने आया है। कैग रिपोर्ट कह रही है कि इसमें करोड़ों-अरबों  की गड़बडिय़ां हुई हैं। इस स्कीम के तहत वितरित 52,500 करोड़ रुपयों में कम से कम 20 फीसदी राशि के इस्तेमाल को लेकर गंभीर सवाल उठाये गये हैं। 

अब जरूरत  दूरगामी सोच, कठोर वित्तीय नियंत्रण, सुशासन की है और यही सरकार का मूल कर्म और धर्म होना चाहिए।