Monday, 28 October 2013

PUBLIC PRIVATE PARTNERSHIP AT GLANCE

In the last couple of decades, the 3P model of development has emerged as a new instrument of social, economic and infrastructural development all over the world but there are many dimensions, problems and prospects to it. No doubt, it is paradigmatic shift in the conventional models and approaches to development but at the same time, it has caused and created many heartburns and problems as well. Some of these 3P approaches are marred by corruption, nepotism, favouritism and other controversies. 
Problems related to land acquisition, protest of farmers and encouragement to chrony capitalism are common allegations against the 3P model. It is also stated that it allows private sector to loot openly national and natural resources at the cost of environment and ecological balance. Big business houses and large multinationals try to deceive people and the government in the name of development. Is there anyway out of this crisis? Are these allegations concrete and true in their substances and spirit? Is it not one of the best alternatives available for development at present? Can government alone afford to bear the cost of social and economic infrastructural development on its own? Can we match international standard and expertise and State-of-art technology without 3P model. 
These are some mind boggling questions which need urgent answers.  The paper tries to look into the reality and rhetoric of 3P model. It is neither absolute boon or bane for present day society. No doubt, it is the need of the hour. Ever increasing demand and need for development cannot be fulfilled by state alone. We need partners in development. Peoples’ participation, role of civil society and media can help 3P model. Transparency, openness and accountability can provide solution to many of its problems faced by the 3P model. 
There are fantastic examples in the world which show that how the 3P model can create wonders and miracles if implemented in a proper and just way. PPPs represent a paradigm shift in mobilizing both resources and expertise for expanding and improving public services through well-conceived infrastructure projects. There are several alternatives available but the one that is, broadly speaking, adopted in the country is that where capital investment is made by the private sector on the strength of a contract with government to provide agreed services. The model can be based on a BOT, BOO or BOOT arrangement or an acceptable close variant of these. 
The risks are to a considerable extent transferred to the private partner who is expected to manage these better on the basis of his experience, capabilities and flexibilities available to him. Since infrastructure projects often do not generate commercial returns in the short or medium run, incentives have to be provided by the government to the private partner which may be in the form of capital subsidy. It may be a one time grant or annuity for a fixed span of time. This is termed as Viability Gap Filling. In some cases projects can be supported by providing revenue subsidies, tax breaks or even guaranteed revenues for a fixed period. Such projects involve massive investments and, therefore, have to be carefully designed to make these bankable entities.

Thursday, 19 September 2013

दंगों का मिथक और यथार्थ

मुजफ्फरनगर में हुआ दंगा कोई पहला दंगा नहीं है, जिसके बाद राजनीतिक घमासान शुरू हो गया है और हर राजनीतिक दल एक दूसरे पर दोषारोपण कर रहे हैं. जबकि ये एक सामूहिक और सामाजिक जिम्मेदारी है. यदि अतीत में देखें तो कोई राजनीतिक दल ऐसा नहीं है, जिस पर परोक्ष या अपरोक्ष रूप से वोटबैंक का लाभ कमाने के लिए सांप्रदायिक वैमनस्य और विद्वेष फैलाने के आरोप नहीं लगे हैं. इसलिए अब समय संयम, समझ और कठोर व प्रभावी कार्रवाई करने का है न कि  राजनीतिक गुणा-भाग करने का. 
आज जरूरत इस बात की  है कि उत्तर प्रदेश के सभी दल चाहे समाजवादी पार्टी हो या बीजेपी, कांग्रेस, बीएसपी या अन्य क्षेत्रीय पार्टियां, उनके सभी सम्मानित नेताओं का एक समूह दंगा प्रभावित क्षेत्रों का दौरा करे, पीडि़तों से मिले और एक एक्शन प्लान तैयार किया जाये ताकि भविष्य में ऐसी घटनाएं दोबारा नहीं हों, यही समय पुलिस सुधारों के लिए सर्वाधिक उचित और उपयुक्त है ताकि ऐसे किसी भी मामले में तत्काल विधि सम्मत और ठोस कार्रवाई करने से पहले राजनीति और राजधानी की ओर देखकर संकेतों का अनुमान लगाने और उस आधार पर कार्रवाई करने के लिए किसी का मोहताज नहीं होना पड़े.
निश्चित रूप से इन दंगों से विश्वास को जो चोट पहुंची है, उसे फिर से बहाल करना बहुत मुश्किल होगा. अगर ऐसा हो भी सका तो इसमें काफी समय लग जायेगा. इतना भी तय है कि मुजफ्फरनगर और आसपास के इलाकों में दो संप्रदायों के बीच विश्वास की दरार तो आ ही चुकी है. समाज शास्त्र में कहा गया है - कांफिल्क्ट इज ए सोशल प्रोसेस यानि जब भी कहीं समाज में संघर्ष या द्वंद्व की स्थिति बनती है तो उसके पीछे छोटी-बड़ी घटनाओं की लंबी श्रृंखला होती है, जो अकस्मात किसी एक घटना से विस्फोटक रूप में सामने आती है. लेकिन वह एक घटना संघर्ष के लिए अकेली जिम्मेदार नहीं होती बल्कि पीछे की तमाम छोटी-बड़ी घटनाएं भी उतनी ही बड़ी कारक होती हैं.
मुजफ्फरनगर में जो कुछ हुआ, वो सिर्फ एक घटना का परिणाम नहीं माना जा सकता बल्कि ये विद्वेष और असंतोष की ज्वाला थी, जो धीरे धीरे सुलग रही थी, जिसने मुजफ्फरनगर की हाल की घटना से अनियंत्रित होकर ज्वालामुखी सा विस्फोटक रूप ले लिया. इसके राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक कारण हैं. दंगे का अपना मनोविज्ञान होता है. दंगा कहीं भी हो, छोटा हो या बड़ा हो, उसके पीछे साजिश और सियासी नफा-नुकसान की सोच का अंतर भी होता है. 
मुजफ्फरनगर दंगा इसी सोच की विकृत अभिव्यक्ति है. यहां ये बताना जरूरी है कि पश्चिम उत्तर प्रदेश को कुछ सियासी दल  ..मजगर..यानि मुस्लिम, जाट, गुर्जर और राजपूत के समीकरण के रूप में देखते हैं. इस क्षेत्र की अधिसंख्य आबादी इसी समुदाय की है, जो अपने आर्थिक तानेबाने और सरोकारों से एक-दूसरे से जुड़े हैं। इन दंगों ने सबसे ज्यादा चोट इसी अर्थव्यवस्था और विश्वास को पहुंचाया है. 
बाबरी मस्जिद कांड के पहले भी यहां कभी ऐसा दंगा-फसाद नहीं हुआ, जहां हिन्दू और मुसलमान एक दूसरे के खून के प्यासे हो गये हों और एक दूसरे की बस्तियों को जला दिया हो. आखिरकार इस बार ऐसा क्या हो गया? साजिश में कौन कौन शामिल थे? सरकार और प्रशासनिक अफसरों की क्या भूमिका रही? वो इस हादसे के लिए कितने जिम्मेदार हैं? इस सबकी जांच के लिए जस्टिस विष्णु सहाय की अध्यक्षता में एक जांच समिति गठित कर दी गई है, जो इसके कारणों और कतिपय साजिशी तत्वों का पता लगायेगी? जांच के निष्कर्ष सामने आने में अभी वक्त लगेगा. तब तक के लिए एक पुराना शेर याद आता है-
इबरत फेज है तेरा फसाना सब फसानों में
न समझोगे तो मिट जाओगे हिन्दोस्तां वालों
तुम्हारी दास्तां तकदी होगी दास्तानों में. 
 
..अब दंगों के बाद प्रदेश की अखिलेश यादव सरकार और सियासी दल एक दूसरे पर दोष मढ रहे हैं. और धीरे धीरे ये केवल मुजफ्फरनगर ही नहीं बल्कि पूरे देश की जनता को महसूस हो रहा है कि ये दंगे केवल और केवल राजनीतिक साजिश का नतीजा थे. चुनाव करीब आने के साथ ही सियासी दलों की वोटबैंक की प्रयोगशाला इस तरह के अमानवीय खेल खेलने में लग गई है. 
सबसे दुखद ये है कि जिस समय प्रशासन को चेतना चाहिए था और शुरुआत में ही माहौल को समझकर कार्रवाई करना चाहिए था, तब पुलिस और प्रशासन हाथ पर हाथ धरे बैठे थे. हालांकि कहा जा रहा है कि उनकी इस निष्क्रियता की भी वजहें थीं. माना जा रहा है कि ऊपर से मिल रहे आदेश उनकी कार्रवाई में आड़े आ रहे थे. बाद में दंगों की शासन की नाकामी का ठीकरा भी उन्हीं अफसरों के सिर फोड़ा गया, जो हुक्मरानों के आदेश पर तमाशबीन से बने हुए थे.
दंगे में किसी भी वर्ग और संप्रदाय के व्यक्ति को मारा या लूटा जाये तो उसकी मौत दरअसल इंसानियत की मौत होती है. अब तक अतीत में जो हुआ, उसे न पलट सकते हैं और न ही बदल सकते हैं. लेकिन भविष्य में ऐसा नहीं हो, इसकी ईमानदार और सार्थक कोशिश तो की ही जा सकती है। अभी कई आयोग बैठेंगे. कई समितियां बनेंगी. सियासी दलों के अलग अलग दौरे होंगे, जो किसी विशेष संप्रदाय, वर्ग, जाति और समुदाय के पीडि़तों  और खास प्रभावित क्षेत्रों तक सीमित होकर रह जाएंगे. लेकिन इस सारी कवायद का कोई नतीजा नहीं निकलेगा जब तक कि इसमें सामूहिक चेतना शामिल नहीं हो. प्रशासनिक, न्यायिक और पुलिस सुधार लागू नहीं किये जाएं. और तत्काल दोषियों के खिलाफ कठोर कार्रवाई नहीं हो। इसके अलावा सब कुछ दिखावा और छल है. इसलिए ये सबक लेने का समय है, जागने और झिंझोडऩे का समय है, वर्ना..कस्मेवादे प्यार वफा सब..वादे हैं वादों का क्या..

Tuesday, 3 September 2013

राजनीतिक जीवन में पारदर्शिता की आवश्यकता और औचित्य

दो महीने पहले जब सुप्रीम कोर्ट ने जनप्रतिनिधि अधिनियम का निर्वचन करते हुए ये स्पष्ट किया था कि यदि कोई सांसद या विधायक किसी भी अपराध में अदालत द्वारा दो वर्ष या अधिक समय के लिए दंडित किया जाता है तो वह अपने सदन की सदस्यता से अयोग्य हो जायेगा। ऐसा इसलिए जरूरी है क्योंकि संविधान के अनुच्छेद 14 में जो विधि का शासन और समानता का अधिकार सुनिश्चित किया गया है, उसके तहत भारत के सभी नागरिक कानून की नजर में समान हैं और कानून ये तय करता है कि यदि कोई नागरिक, जो  सांसद या विधायक नहीं है, अगर वह किसी अपराध में दो वर्ष या अधिक समय के लिए दंडित होता है तो न चुनाव लड़ सकता है और न ही मताधिकार का इस्तेमाल कर सकता है। ऐसे में सांसदों और विधायकों को ये उन्मुक्ति और विशेषाधिकार क्यों दिया जाये? आखिरकार वो भी भारत के नागरिक हैं, जिन्हें हम सब लोगों ने ही अपना प्रतिनिधि चुना है।
लोक और तंत्र अलग नहीं किये जा सकते। इसलिए सियासी दलों को खुद आगे बढक़र पहल करनी चाहिए। यदि उनके बीच कोई सदस्य अदालत द्वारा दंडित होता है तो वो खुद मिसाल कायम करें और ऐसे लोगों को टिकट नहीं दें या पार्टी की सदस्यता से वंचित करें न कि सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को पलटने के लिए एकजुट हो जाएं. जहां तक इस बात का प्रश्न है कि सत्ताधारी दल या अन्य लोग इस बात का फायदा उठाएंगे। किसी पर भी आरोप लगाकर , जो झूठे और तथ्यहीन भी हो सकते हैं, निर्दोष और ईमानदार लोगों को भी चुनाव लडऩे से रोक दें। तमाम सियासी दलों ने ये आशंका भी जाहिर की है कि किस प्रकार सीबीआई और अन्य सरकारी एजेंसियों के द्वारा विरोधी दलों के नेताओं को बिनवजह झूठे मुकदमों में फंसाया जाता है और सरकार अपनी शक्तियों का बेजा इस्तेमाल करती है। 
निश्चित रूप से ये एक कड़वी सच्चाई है, जिसे अब जाने-अनजाने में राजनीतिक दलों ने स्वीकार किया है, जब वो सत्ता में होते हैं तो वो अपनी शक्तियों का दुरुपयोग करते हैं। इसलिए आज जरूरत इसके दुरूपयोग को रोकने की है न की सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को खत्म करने की। इसीलिए जरूरी हो जाता है कि पुलिस और अन्य सरकारी जांच एजेंसियों को पर्याप्त स्वायत्तता दी जाये। उन्हें राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त रखा जाये।  उनके ऊपर कठोर निगरानी और नियंत्रण के लिए विधायिका की जवाबदेही सुनिश्चित की जाये ताकि स्वायत्तता प्राप्त एजेंसियां खुद अपनी शक्तियों का बेजा इस्तेमाल नहीं कर सकें और ऐसे मामले, जिन पर राजनीतिक दलों के नेताओं और कार्यकर्ताओं पर आपराधिक मुकदमे दर्ज किये गये हों, उनकी सुनवाई के लिए फास्ट ट्रैक कोर्ट या अलग से न्यायाधिकरण बनाया जाये, जो छह माह से सालभर में ऐसे मामलों पर अपना फैसला जरूर सुना दे।
ऐसा करना कठिन या नामुमकिन भी नहीं है। मौजूदा संसाधनों  में आज ये किया जा सकता है।  बात बस राजनीतिक और प्रशासनिक इच्छाशक्ति और मंतव्य की  है। ये भी तय करना होगा कि यदि कोई ऐसे झूठे आरोप लगाता है तो उसके खिलाफ भी कठोर दंडात्मक कार्रवाई का प्रावधान हो। इसी तरह सूचना के  अधिकार के तहत सियासी दलों को स्वयं को लोकप्राधिकारी मानते हुए जनता और लोकतंत्र के प्रति अपनी जिम्मेदारी के प्रति अधिक संवेदनशीलता और सहनशीलता दिखाने की जरूरत है। इससे उनकी गिरती प्रतिष्ठा और जन विश्वास की फिर से बहाली ही नहीं होगी बल्कि यह स्वस्थ प्रदेश, स्वस्थ समाज और स्वस्थ लोकतंत्र की दिशा में एक सकारात्मक और निर्णयात्मक कदम साबित होगा।





Wednesday, 7 August 2013

दुर्गा शक्ति के बहाने आईएएस भी सोचें


स्वतंत्रता के बाद सरदार पटेल ने भारतीय सिविल सेवाओं का भारतीयकरण शुरू किया था। उन्होंने सचिवालय प्रशासन व्यवस्था का पुनर्गठन किया और आजादी के पूर्व नौ अखिल भारतीय सेवाओं को खत्म कर केवल दो आईएएस और आईपीएस को अखिल भारतीय सेवा के रूप में बनाये रखा। भारतीय वन सेवा का गठन बहुत बाद में 1968 में हुआ। ये तीसरी अखिल भारतीय सेवा बनी। तब से आजतक अखिल भारतीय सेवाओं, खासकर आईएएस संवर्ग ने न केवल देश को प्रशासनिक नेतृत्व प्रदान किया बल्कि देश को राजनीतिक एकता के सूत्र में बांधा।
नीति निर्माण से नीति क्रियान्वयन में उनकी शानदार भूमिका रही। जनता के बीच सरकार की सफलता और विफलता का पैमाना आईएएस संवर्ग की कार्यशैली और व्यवस्था से निर्धारित होता रहा है। जनता की नजरों में आईएएस संवर्ग ही सरकार का प्रतिरूप है लेकिन 1975 के आपातकाल के बाद इतनी तेजी से सिविल सेवा का राजनीतिकरण हुआ है और जिस प्रकार नौकरशाही राजनीतिक, जातिगत और दलीय आधारों पर बंटती गई, आज उसी का परिणाम दुर्गा शक्ति नागपाल मामले में सामने आया। वह आईएएस संवर्ग की  पहली अफसर नहीं,जिनके साथ अन्याय हुआ है बल्कि इसके कई उदाहरण हैं। 
लेकिन जिस तरह से आईएएस संवर्ग ने अपने राजनीतिक स्वामियों के सामने आत्मसमर्पण किया और नतमस्तक हुए हैं, उससे ईमानदार अफसरों को प्रशासनिक उत्पीडऩ झेलना पड़ता है। अधिक आकर्षक पदों पर नियुक्ति और राजनीतिक स्वामियों के निकट आने की प्रवृत्ति के कारण आईएएस संवर्ग के लगातार कमजोर होते जाने से न केवल सिविल सेवाओं की प्रतिष्ठा गिरी है बल्कि उनकी विश्वसनीयता भी संदिग्ध हुई है।
आज स्वयं आईएएस संवर्ग को भी सोचना होगा कि आखिरकार जिसे कभी भारत का स्टील फ्रेम कहा जाता था, वो इतना जर्जर और कमजोर क्यों हो गया? सिविल सेवाओं को जो संवैधानिक संरक्षण हासिल है, उसके तहत जब तक दोष साबित नहीं हो जाये, तब तक उसके खिलाफ ट्रांसफर से ज्यादा कोई कार्रवाई नहीं की जा सकती, वो भी लोकहित में।
लेकिन गत कुछ दशकों से दल विशेष की सरकार बनने पर राजनीतिक निकटताओं के चलते कुछ आईएएस अफसर इतने महत्वपूर्ण और प्रभावी हो जाते हैं कि वे ही सचिवालय, मंत्रालय से लेकर जिला स्तर तक समूची सरकार चलाते हैं। शेष अफसर प्रशासनिक हाशिये पर धकेल दिये जाते हैं। तब आईएएस एसोसिएशन कुछ कहती और करती दिखाई नहीं देती। 
याद नहीं आता कि कभी आईएएस एसोसिएशन ने सर्वसम्मति से ये फैसला किया हो कि हम अपने सियासी स्वामियों का कोई गैर कानूनी और अवैध आज्ञापालन नहीं करेंगे। हम अपने सीनियर अफसरों से प्रशासनिक शुचिता का पाठ सीखेंगे, अधीनस्थ को नेतृत्व, मार्गदर्शन और देश के विकास में आगे बढऩे की सीख देंगे। ऐसी मिसाल फिलहाल सामने नहीं दिखती, जब आईएएस एसोसिएशन ने गलत सियासी निर्णयों का विरोध किया हो।
ऐसे में वह फिर चाहें खेमका हों या फिर संजीव चतुर्वेदी या फिर दुर्गा शक्ति, उनको अपने कानूनी कार्यों के लिए दंड भुगतना पड़ता है। ये उस क्षरण का प्रतीक है जो राजनीतिक और सामाजिक जीवन में गहरे तक प्रवेश कर गया है। इसलिए ये आईएएस एसोसिएशन के लिए  आत्मचिंतन और आत्ममंथन का विषय है। जब मंथन हो तो अमृत-विष दोनों ही निकलते हैं। वहीं सियासी वर्ग को ये सोचना होगा कि वो जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों के रूप में सीधे और प्रत्यक्ष रूप से जनता के लिए जवाबदेह हैं। उन्हें ऐसे विषयों को प्रतिष्ठा का विषय नहीं बनाना चाहिए और हठधर्मिता छोडक़र कुशल राजनीतिक नेतृत्व देना चाहिए। 
लेकिन इसके ठीक विपरीत वो जनप्रतिनिधि कानून पर सुप्रीमकोर्ट के निर्णय और आरटीआई के दायरे से खुद को बाहर रखने के लिए लामबंद हो रहे हैं। ये शुभ संकेत नहीं है। राजनीतिक वर्ग और सिविल सेवक एक दूसरे के पूरक और सहयोगी हैं न की प्रतिद्वंद्वी, विरोधी या प्रतिस्पर्धी। इन्हें एक-दूसरे के साथ सामंजस्य से कार्य करना होगा अन्यथा देश का सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक विकास अवरूद्ध होता रहेगा।