Thursday, 16 April 2015

Stars of VAID ICS selected in UPPCS 2013 (Result declared on 2015)















New Article on Farmer's Issues or problems

किसानों का संकट
हे ग्राम देवता, तुमको प्रणाम। इस तरह की आकर्शक, कर्णप्रिय और सुंदर पक्तियां हम प्रायः सुनत-पढ़ते रहते हैं लेकिन यथार्थ के धरातल पर उनके लिए कुछ होता नही दिखता। इस बार भी बिन मौसम की बरसात और बदलते जलवायु चक्र ने लगभग पूरे उŸार भारत में फसलों को बरबाद कर दिया है, कई किसानों ने आत्महत्यायें कर ली और कई फिर से तंगहाली और कर्ज के जाल में फंस गये हैं लेकिन सरकार से उनको मुआवजा और राहत के नाम पर उनको सिर्फ आष्वासन या मजाक मिला।
एक कृशि प्रधान देष होते हुए भी भारत में खेती-किसानी करने वालांे की ऐसी दयनीय स्थिति और दुर्दषा क्यों है। कोई भी अपने बच्चें को किसान नहीं बनाना चाहता। खेती-किसानी करना गरीबी, पिछड़ापन और आर्थिक तंगी का पर्याय माना जाता है। जबकि आज भी देष में अधिकांष जनसंख्या खेती और खेती से जुड़े उद्योगों पर निर्भर करती है, जिन्हें हम अन्नदाता कहते हैं उन्हीं की स्थिति देष में सबसे खराब है। दरअसल इस देष में जवान और किसान तभी याद आते हैं जब हमारे सामने कोई बड़ा संकट खड़ा हो जाता है। लगातार बढ़ती जनसंख्या और मानसून पर निर्भरता होने के बावजूद हमारे देष के किसानों ने अभूतपूर्व पैदावार दिया है लेकिन हमारी सरकार अभी तक ऐसी भंडारण क्षमता और फसल सुरक्षा प्रणाली क्षमता का निर्माण नहीं कर पायी जिससे हम खेती किसानी करने वालों की आर्थिक सुरक्षा सुनिष्चित कर सके और देष को हमेषा के लिए खाद्य संकट से मुक्ति दिला सकें।
आज किसानों के सामने सबसे बड़ा संकट मौसम की मार और आर्थिक असुरक्षा है। उनकी कोई निर्धारित आय नहीं है। खेती आज भी जोखिम और घाटे का सौदा है। मंडी व्यवस्था में फसल और उपज का मूल्य व्यापारी और बिचैलियों के हितों में अधिक है। कृशि लागत और मूल्य आयोग (सीएसीपी) आज तक ऐसी समर्थन या मूल्य प्रणाली नहीं बना पाया जिससे किसानों की आर्थिक असुरक्षा को दूर किया जा सके। किसानों का संकट सिर्फ किसानों का नहीं है यह पूरे देष का संकट है और अगर इस देष का किसान परेषान और खस्ताहाल रहेगा तो कोई भी दूसरा वर्ग सुखी और खुषहाल नहीं रह सकता। इसलिए कुछ सुझाव हैं - कुछ ऐसी व्यवस्था की जाये जिससे किसानों की एक न्यूनतम निर्धारित एवं मासिक आय हो, जो कि बहुत मुष्किल काम नहीं है। राजनीतिक दूरदर्षिता और प्रषासनिक कौषल के साथ यह काम सीएसीपी कर सकता है जिसमें अर्थषास्त्री और सांख्यकिकीविद किसान की फसल का एक औसत वार्शिक मूल्य निकाल सकें और सरकार द्वारा उन्हें एक न्यूनतम, निर्धारित पारिश्रमिक दिया जाये। एक निर्धारित मात्रा से अधिक कृशि स्रोतों से होने वाली वार्शिक आय को कर के दायरें में लाया जाये ताकि जो खेती-किसानी के नाम पर अपनी कर योग्य धनराषि को बचा ले जाते हैं वे इसका लाभ न उठा सके और वास्तविक किसान को ही सरकारी योजनाओं, सब्सिडी इत्यादि का लाभ मिलें। प्रधानमंत्री जन धन योजना, आधार और मोबाइल से देष के प्रत्येक किसान का सूचना और डाटा बैंक तैयार किया जाये और सारी राहत, सब्सिडी व अन्य धनराषि सीधे उनके खातों में हस्तानांतरित की जाये। वास्तविक किसान और दिखावटी किसान के बीच के अन्तर को समझा जाये ताकि देष का अन्नदाता सक्षम और समर्थ हो सके।
डाॅ0 प्रत्यूश मणि त्रिपाठी, निदेषक वैद आईसीएस लखनऊ
    

New Article on न्यायिक नियुक्ति आयोग पर विवाद

न्यायिक नियुक्ति आयोग पर विवाद
7 अप्रैल, 2015 को सर्वोच्च न्यायालय ने राश्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग के गठन पर रिट याचिका स्वीकार करते हुए इसे एक वृहद् संवैधानिक पीठ को सौंपने का निर्णय किया है। इससे फिर से न्यायाधीषों की नियुक्ति का विवाद सामने आ गया है। कानून और संविधान के जानकार फली. एस. नरीमन और पूर्व कानून मंत्री कपिल सिब्बल ने भी प्रस्तावित आयोग को न्यायपालिका की स्वतंत्रता तथा बुनियादी ढांचें के सिद्धान्त के विपरीत बताया था। 1993 में न्यायमूर्ति जे. एस. वर्मा की अध्यक्षता में 9-सदस्यीय संविधान पीठ ने यह निर्णय लिया था कि न्यायाधीषों की नियुक्ति में भारत के प्रधान न्यायाधीष का परामर्ष राश्ट्रपति पर बंधनकारी होगा तथा इसके पूर्व एस. पी. गुप्ता बनाम भारत संघ और एडवोकेट आॅन रिकाॅर्ड निर्णय में भी कुछ इसी तरह की राय व्यक्त की गयी थी, तभी से भारत में सर्वोच्च और उच्च न्यायालयों में न्यायाधीषों की नियुक्ति एक काॅलेजियम के परामर्ष से राश्ट्रपति के द्वारा की जाती रही है। विवाद इस बिन्दु पर रहा है कि प्रायः न्यायाधीषों ने नियुक्ति में अपने ही सगे-सम्बन्धियों को वरीयता दी तथा सरकार एवं कार्यपालिका का न्यायाधीषों की नियुक्ति में कोई भी हस्तक्षेप एवं भूमिका नहीं है जिसके कारण न्यायपालिका में न्यायाधीषों की नियुक्ति स्वयं न्यायाधीष ही करते रहे हैं जबकि अन्य देषों में जैसे कि अमेरिका में राश्ट्रपति सीनेट की स्वीकृति से, इंग्लैंड में न्यायिक नियुक्ति आयोग के द्वारा, कनाडा में प्रधानमंत्री और कानून मंत्री की सलाह से तथा आॅस्ट्रेलिया में न्यायिक नियुक्ति की सिफारिषें एटार्नी जनरल, गवर्नर जनरल को भेजते हैं और इस प्रकार न्यायाधीषों की नियुक्ति में एकमात्र अकेले न्यायपालिका की ही भूमिका नहीं है। अतीत में ऐसे कई अप्रिय विवाद भी हुए हैं जिसमें कि भारत में न्यायाधीषों की नियुक्ति पर उंगलियां उठीं एवं नियुक्तियों को संदिग्ध निश्ठा के आधार पर देखा गया। ऐसा ही एक मामला न्यायमूर्ति मार्कन्डेय काटजू ने कुछ महीनों पहले अपने एक लेख में उजागर किया था जब वे स्वयं मद्रास उच्च न्यायालय में बतौर मुख्य न्यायाधीष कार्य कर रहे थें।
न्यायपालिका को पूर्णतया किसी भी प्रकार के संदेह से परे होना चाहिए एवं स्वयं इस नवाचार की पहल करते हुए न्यायिक नियुक्तियों में षुचिता, पारदर्षिता और तटस्थता के सिद्धान्तों का अनुपालन करना चाहिए क्योंकि इससे न सिर्फ जनसाधारण में न्यायपालिका की गरिमा और प्रतिश्ठा बढ़ेगी बल्कि इस प्रकार के विवाद और आरोपों से भी वह बच सकेगी जिसमें कि न्यायिक नियुक्तियों में भाई-भतीजावाद या अन्य विवादों के आरोप लगते रहे हैं। पारित 99वें संविधान संषोधन, 2014 केे द्वारा अनुच्छेद 124 में परिवर्तन करते हुए जिस राश्ट्रीय नियुक्ति आयोग के गठन का प्रावधान किया गया है अब वह कानून ही न्यायिक समीक्षा के अधीन आ गया है और यह देखना होगा कि न्यायपालिका किस तरह से संतुलन साधते हुए न्यायिक नियुक्तियों की षुचिता और अपने प्रामाणिकता एवं स्वतंत्रता बनाये रख सकेगी।
--डाॅ. प्रत्यूश मणि त्रिपाठी,
निदेषक, वैद आईसीएस लखनऊ

Sunday, 22 March 2015

New Article related to Terrorism


आतंक की ’मुफ्ती’ सोच
 जम्मू-कष्मीर में पीडीपी-बीजेपी सरकार बनने के बाद 20 मार्च 2015 को कठुआ जिले के सीमा से सटे एक थाने पर जिस तरह आतंकी हमला हुआ और हमारे पुलिस के जवान षहीद हुए तथा आतंकियों ने न सिर्फ थाने पर कब्जा कर लिया बल्कि एक बार फिर उस खतरे की घंटी बजा दी जिसको लगातार राज्य की मुफ्ती सरकार नज़रअंदाज करती रही है। चुनाव के ठीक बाद पाकिस्तान, आतंकियों, हुर्रियत और सीमापार के सहयोग के कारण भारी मतदान षांतिपूर्ण तरीके से हुआ, ऐसी मुफ्ती साहब की सोच है। उसके ठीक बाद कट्टरपंथी और अलगावादी नेता मसरत आलम की रिहाई का फैसला, यह भी मुफ्ती साहब की सोच है। जाहिर है कि वे भारत के एक राज्य के मुख्यमंत्री के तौर पर कम और सीमापार के सहयोगी के रूप में अधिक कार्य करते दिखाई दे रहे हैं। उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि जम्म-कष्मीर में बड़ी तादाद में लोगों ने निकलकर षांतिपूर्ण तरीके से न सिर्फ मतदान में बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया बल्कि भारतीय राश्ट्रराज्य की व्यवस्था में अपना विष्वास भी जताया है। इसके लिए हमारे देष का निर्वाचन आयोग, सेनाआंे और सुरक्षा बलों की तत्पर कार्यवाही, स्थानीय प्रषासन और खुद जम्मू-कष्मीर के लोग प्रषंसा के पात्र हैं। मुफ्ती साहब इन सबकी अनदेखी करके न सिर्फ उस जनादेष की अवज्ञा कर रहे हैं बल्कि उन संवैधानिक प्रावधानों का भी पालन नहीं कर रहे हैं जिसके तहत उन्होंने बतौर मुख्यमंत्री षपथ ली है। यह ठीक है कि जम्मू-कष्मीर एक बेहद जटिल और संवेदनषील राजनीतिक मसला है लेकिन देष की सुरक्षा अमनोआमान और संप्रभुता से खिलवाड़ करने की इजाजत किसी को नहीं दी जा सकती। मुफ्ती साहब की राजनीतिक मजबूरियां कुछ भी हांे अब वे राज्य के मुख्यमंत्री हैं और राज्य की कानून व्यवस्था बनाये रखना उनकी पहली महŸवपूर्ण जि़म्मेदारी है। बीजेपी को भी यह सोचना होगा कि विपरीत ध्रुव वाले सिद्धान्त, सोच और राजनीतिक विचारधारा के साथ जो गठबंधन उन्होंने किया है उसकी जिम्मेदारी से यह कह कर बच नहीं सकते कि मुफ्ती सरकार ने ऐसे संवेदनषील मसलों पर उनसे कोई चर्चा या पूर्व परामर्ष नहीं किया था। आज जम्मू-कष्मीर सिर्फ और सिर्फ विकास और समृद्धि चाहता है, अलगाव या बंटवारा नहीं। लंबे समय से चली आ रही आतंकी परिस्थितियों के कारण राज्य का विकास, पर्यटन उद्योग और आम कष्मीरी नागरिक बुरी तरह से त्रस्त और प्रभावित रहा है। इसमंे भी सबसे दयनीय स्थिति उन लाखों कष्मीरी पंडितों की है जिन्हें अपनी जड़ो और घरों से उजड़ने का दुख और दंष अपने ही राज्य में झेलना पड़ा है। अगर इस राज्य की समस्या को सुलझाना है तो इसे सिर्फ और सिर्फ जम्मू-कष्मीर के लोग और भारत सरकार आपसी सहयोग और संवाद से समस्याओं को दूर कर सकते हैं। मुफ्ती साहब इतिहास के उस मुहाने पर खड़े हैं जहां से आने वाले समय में वे सूबे की नई तकदीर लिख सकते हैं या फिर अपनी गलत सियासी सोच और मंसूबों को पूरा कर सकते हैं। दोनों काम एक साथ नहीं हो सकते। दुश्यंत की याद आती है जो कहते थें-
’’उनके पांव के नीचे कोई जमीं नहीं,
कमाल ये है कि फिर उन्हें यकीन नही,
मैं बेपनाह अंधेरों को सुबह कैसे कहँू,
मैं इन नजारों का अंधा तमाषबीन नहीं।’’

डाॅ प्रत्यूशमणि त्रिपाठी

Tuesday, 24 February 2015

New Article on National Security

राष्टीय सुरक्षा के सरोकार
    कोस्ट गार्ड के डीआईजी बी के लोशली का हाल में दिया गया यह बयान कि 31 दिसंबर 2014 की रात आतंकियों ने अपनी नौका को खुद नही उड़ाया था बल्कि यह काम कोस्टगार्ड ने किया था कितना सही है, यह तो जांच के बाद ही पता चलेगा और सेना मुख्यालय द्वारा इस पर बोर्ड आॅफ इन्क्वायरी का गठन भी कर दिया गया है लेकिन हैरत की बात यह है कि राष्टीय सुरक्षा से जुड़े ऐसे महत्त वपूर्ण मसलों पर भी राजनीतिक दल सिर्फ सियासत करते हैं और लगता है कि कांग्रेस स्वयं उस नारे को जल्द से जल्द साकार कर देना चाहती है जिसे प्रधानमंत्री मोदी ने कांग्रेस मुक्त भारत कहा था। दुखद यह है कि कांग्रेस के प्रवक्ता राष्टी य सुरक्षा की चिन्ता करते कम और पाकिस्तान के पैरोकार ज्यादा लग रहे थे। यह तो पता नही कि डीआईजी लोशली ने किस वजह से ऐसा गैरजिम्मेदराना बयान दिया लेकिन ऐसी सैन्य कार्यवाहियों के विष य में जो आवश य क गोपनीयता बरतना जरूरी होता है या रक्षा मंत्रालय अथवा सरकार का जो आधिकारिक बयान आता है उसे ही सच मानना चाहिए वरना मुम्बई जैसे हालात दोहराने में ज्यादा समय नहीं लगेगा। अगर यह मान भी लिया जाए कि रक्षा मंत्री का बयान पूरी सच्चाई को उजागर नहीं करता या सरकार इसमें कुछ छुपाने का प्रयास कर रही है तो भी यह सरकार की पहली जिम्मेदारी है कि देश  की सुरक्षा से जुड़े प्रश न  पर जो भी उचित समझे वह करे और सेना का मनोबल बनाए रखे। इसके लिए अगर सरकार को कुछ छिपाना या बहुत कुछ बताना जरूरी है तो वह सही भी है। अपनी सेनाओं का पक्ष रखना और उनका साथ देना सरकार की जिम्मेदारी भी है। इसलिए कम से कम राष्टीय सुरक्षा से जुड़े विष यों पर किसी भी राजनीतिक दल द्वारा ऐसा संदेश  नहीं दिया जाना चाहिए कि भारत ऐसे मामलों पर भी राजनीतिक रूप से बंटा हुआ है और देश के जिम्मेदार राजनीतिक दलों को ऐसे संवेदनशील  और गंभीर मुद्दों की या तो समझ नहीं है या फिर वे जानबूझ कर राजनीतिक लाभ-हानि के दृश्ष्टि  से इस तरह की बयानबाजी करते हैं।

याद कीजिए 1962 का भारत-चीन युद्ध जब साम्यवादी दलों ने अतिरेक में आकर चीन के इस हमलें को न सिर्फ सही बताया बल्कि उसका साथ भी दिया था। तब से अब तक हालात काफी बदल चुके हैं। अब राष्टी य सुरक्षा को खतरा सिर्फ सीमापार से ही नहीं है बल्कि देश  के भीतर ही नक्सलवाद, आतंकवाद, माओवाद, क्षेत्रवाद और धर्मान्ध कट्टरता ने बहुत से खतरे पैदा कर दिए हैं। ऐसी किसी भी विभाजनकारी सोच को मजबूती से रोकने की जरूरत है जो देश  की सुरक्षा और अखंडता को खतरे में डालती हो। सभी राजनीतिक दलों का यह राष्टी य करव्य भी है कि वे सोचें कि सिर्फ जब तक भारत खुश हाल रहेगा, सुरक्षित रहेगा और आगे बढ़ेगा केवल तभी वे भी सुरक्षित और खुशहाल रहेंगे और आगे बढ़ेंगे।

यह भी सोचने की बात है कि धर्म, जाति या किसी भी प्रकार की सांप्रदायिकता देश की भावनात्मक और राष्टी य एकता को तोड़ती है। खतरा हमेश बाहर से ही नही आता, यह भीतर भी मौजूद रहता है। इसलिए भारत के सभी राजनीतिक दलों और नागरिकों को यह समझना होगा कि कुछ मुद्दें ऐसे जरूर होते हैं जिन पर पूरे देश की सोच एक होनी ही नही चाहिए, दिखनी भी चाहिए और राष्टी य सुरक्षा ऐसा ही एक विष य है।

-डाॅ. प्रत्यूशमणि त्रिपाठी

Sunday, 8 February 2015

New article Donation during Election

चुनावी चंदा और राजनीतिक सुधार
भारत में जितने जरूरी आर्थिक, प्रषासनिक और न्यायिक सुधार हैं उतने ही जरूरी राजनीतिक और निर्वाचन सुधार भी हैं। अभी हाल ही में आम आदमी पार्टी द्वारा संदिग्ध और अनुचित तरीके से चंदा लेने का जो मामला प्रकाष में आया उस पर फिर से सभी राजनीतिक दलों द्वारा आरोप-प्रत्यारोप षुरू हो गये। सच्चाई क्या है यह तो जांच के बाद ही पता चलेगा लेकिन सच यह है कि हर राजनीतिक दल वास्तव में चुनाव सुधार, चंदा लेने में पारदर्षिता, आंतरिक लोकतंत्र और सूचना के अधिकार से खुद को दूर ही रखना चाहता है अन्यथा क्या कारण है कि केन्द्रीय सूचना आयोग के दिषा-निर्देष के बावजूद राजनीतिक दलों ने न तो जनसूचना अधिकारी तैनात किए और न ही अब तक प्राप्त चंदों का वास्तविक और आधिकारिक ब्यौरा सार्वजनिक किया है। याद रखिए, भारत में कोई भी सुधार सफल नहीं हो सकते जब तक राजनीतिक और चुनाव सुधार बड़े पैमाने पर और यथार्थ रूप से लागू न किए जाएँ क्योंकि सभी तरह के भ्रश्टाचार की जड़ें कहीं न कहीं चुनाव, चंदा और राजनीतिक दलों के अपारदर्षी तंत्र से जुड़ती है। जाहिर सी बात है कि यदि कोई व्यक्ति या संस्था किसी भी राजनीतिक दल को चंदा देती है तो उसके अपने क्या निहित लाभ या स्वार्थ है? उसका स्रोत क्या है? वह किस जरिए से कमाया गया धन है? और किसी राजनीतिक दल को क्यों दिया जा रहा है? यह सब देष के लिए जानना बेहद जरूरी है। जिस तरह से चुनाव लगातार मंहगा होता जा रहा है, प्रचार-तंत्र, विज्ञापन, पेड न्यूज, मीडिया मतदाताओं को प्रलोभन और अन्य तौरतरीके, जो गलत और गैरकानूनी भी है, चुनाव जीतने के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं, उससे देष का खासा सम्पन्न व्यक्ति भी स्वयं चुनाव लड़ने में सक्षम नहीं हो सकता। राजनीतिक दलों का यह कहना कि वे अपना ब्यौरा चुनाव आयोग को देते हैं तथा आयकर रिटर्न भरते हैं, इसलिए अलग से उसकी सूचना जरूरी नहीं है और यदि कोई इनसे संबंधित सूचनाएं चाहता है तो वह आयोग से इसकी जानकारी ले सकता है, कतई तर्कसंगत और सही नही है। राजनीतिक दल भी निष्चित रूप से लोकप्राधिकारी की श्रेणी में आते हैं क्योंकि 1. सरकार बनाने और गिराने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। 2. उन्हें रियायती दरों पर आवास, कार्यालय इत्यादि के लिए सरकार द्वारा भवन और अन्य सुविधाएं उपलब्ध करायी जाती है। 3. हवाई जहाज, रेलवे, राज्य परिवहन इत्यादि से यात्राओं पर उन्हें भत्ता, कूपन व अन्य रियायतें दी जाती हैं। 4. सरकार द्वारा बिजली, पानी, टेलीफोन, स्टाफ जैसी अन्य सुविधाएं राजकोश के खर्चे पर दी जाती है। 5. वे भारतीय संविधान के तहत देष की राजनीतिक कार्यपालिका का हिस्सा होते हैं, इसलिए वे निष्चित रूप से न सिर्फ सूचना के अधिकार के दायरे में है बल्कि उनके वार्शिक प्राप्तियों पर कुछ न्यूनतम आयकर भी लिया जाना चाहिए और सभी प्रकार के आमदनी, चंदा या अन्य किसी भी स्रोत से विय सहायता का लिखित रिकार्ड उनकी वेबसाइट्स, कार्यालय, आयकर विभाग और चुनाव आयोग को उपलब्ध कराना चाहिए। आखिर क्या कारण है कि इस मुद्दे पर सभी राजनीतिक दल एक हो जाते हैं और राजनीतिक सुधार तथा चुनावी पारदर्षिता के लिए प्रयास नहीं करते? स्वयं प्रधानमंत्री श्री मोदी को इसकी पहल करनी चाहिए और सबसे पहले बीजेपी और उसकी सहयोगी दलों को इस दिषा में कदम उठाते हुए एक निर्णायक और सकारात्मक संदेष राष्ट्र को देना चाहिए वरना श्री अरविंद केजरीवाल की यह धमकी कि अगर मैने कुछ भी गलत किया है तो सरकार मुझे गिरफ्तार करके दिखाए, स्वयं बीजेपी की सत्यनिश्ठा को संदिग्ध करती है।
-डाॅ. प्रत्यूशमणि त्रिपाठी

Tuesday, 13 January 2015

New Article on आतंक का राजनीतिकरण

आतंक का राजनीतिकरण

अभी हाल ही मंे   पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाष सिंह बादल ने देश  के कई राज्यों के मुख्यमंत्रियांे को चिट्ठी लिखकर उन राज्यों मंे बंद सिक्ख आतंकियों को रिहा करने की मांग की है। याद कीजिए इससे पहले उत्तर प्रदेश  सरकार ने भी विभिन्न आतंकवादी गतिविधियिों मे लिप्त मुस्लिम आतंकियों को रिहा करने के लिए मुकदमें वापस लेने का दिषा निर्देष दिया था और संबंधित जिलाधिकारियों से आख्या मांगी थी कि ऐसे किन मामलों मंे अभियोजन वापस लिया जा सकता है।

इस पर उच्च न्यायालय ने प्रदेश  सरकार को फटकारते हुए कहा था कि आप इन आतंकियों को पुरस्कृत क्यों नहीं कर देते ? सवाल इस बात की है कि राजनीतिक दल चुनाव के पहले या बाद, आखिर किस मंशा  से ऐसी मांग उठाते हैं ? अगर वास्तव में कोई निर्दोश व्यक्ति पुलिस द्वारा ऐसे मामलों में गलत तरीकें से फंसाया गया है तो निष्चित ही राज का यह दायित्व है किऐसे ही बेगुनाह व्यक्ति को छोडा जाए और उसे सजा न मिले, इसका प्रयास हर राज्य सरकार को करना चाहिए फिर चाहे वह आतंकी गतिविधियों का अपराध हो या किसी भी अन्य प्रकार का और वह निर्दोश व्यक्ति किसी भी जाति, धर्म या सम्प्रदाय को हो, उसे बिल्कुल भी सजा नहीं मिलनी चाहिए, यह कानून की मंषा भी है और राज्य की जिम्मेदारी भी। लेकिन धार्मिक, पंथिक या जातिगत आधार पर आतंकियों एवं अपराधियों को छोड़ने या पकड़ने की मांग अथवा कोशिश  न सिर्फ असंवैधानिक और विधि विरुद्ध है बल्कि देश  की एकता, सुरक्षा और अखंडता के लिए बड़ा खतरा भी है।

आतंकी या अपराधी गतिविधियों को धर्म के चष्में से देखकर जायज या नाजायज नहीं ठहराया जा सकता है। गांधी की हत्या करने वाले गोडसे को भी इसी आधार पर महिमामंडित करना उन सभी लोगों के त्याग और बलिदान का उपहास करना है, जिन्होंने राषट्र  की स्वतंत्रता के लिए अपने प्राण न्यौछावर किए। हत्या सिर्फ हत्या है, जो एक जधन्य व दंडनीय अपराध है फिर वह चाहे किसी भी अर्थ या उद्देष्य कि लिए की गई हो। इसी तरह से सिक्ख हो, ईसाई हो या फिर मुस्लिम या हिन्दू हो, निर्दोष लोगों को कत्लेआम, मासूम बच्चों की हत्या, पत्रकारों का गला काटना या फिर लोगों को गोली या बम से उडा देना किसी भी धार्मिक या पंथिक आधार पर स्वीकार्य नहीं हो सकता है।

आज जब आतंकवाद का वैश्वीकरण हो गया है और भारत सहित अफगानिस्तान, पाकिस्तान, दक्षिण पूर्व एषिया और मध्य पूर्व से होते हुए इसकी आंच ब्रिटेन, अमेरिका और फ्रांस को भी जलाने लगी है तो समूचे विष्व समुदाय को समुचित, सुनियोजित और रणनीतिक आधार पर एकजुट होकर आतंकवाद का मुकाबला करना होगा वरना आने वाली पीढ़ियां इसकी बहुत बड़ी कीमत चुकाने के लिए मजबूर होगी। भूराजनीतिक कारणों से या मजहबी आधार पर किसी भी देष में आतंकवाद का समर्थन या आतंकी गुटों को प्रश्रय, सहयोग और सहायता दरअसल हर उस कोषिया पर कुठाराधात है जो आतंकवाद का विरोध करने के लिए उठाई जाती है। याद रखिए अगर हम आज नहीं चेते तो कल बहुत देर हो चुकी होगी और यदि आज भी हमने इन समूहों और विचारधाराआंे को धार्मिक, राजनीतिक या किसी अन्य आधार पर भरण पोशण किया तो हम खुद अपने को इस आग मंे जलने से बचा नहीं पायेंगे। यह समय राजनीति करने का नहीं, सचेत होकर कार्यवाही करने का है।

-डाॅ प्रत्यूष मणि त्रिपाठी