Saturday, 13 June 2015

My New Article related to Myanmar

म्यांमार का संदेष
                पिछले दिनों जिस तरह से घात लगाकर उग्रवादियों ने मणिपुर में भारतीय सेना के काफिले पर हमला बोला था और हमारे 18 जवान षहीद हो गये थे उसके प्रत्युŸार में म्यांमार में की गयी कार्यवाही एक स्पश्ट संदेष है कि अब भारत ऐसे किसी भी हमले को बर्दाष्त नहीं करेगा और आवष्यकता हुई तो सीमापार जा कर भी मुँहतोड़ जवाब दिया जाएगा। यह भारतीय जनमानस और सेना के मनोबल को बढ़ाने वाला कदम है। भारतीय सेना ने साफ कर दिया है कि भारत कोई साॅफ्ट स्टेट नहीं है और अगर उसके हाथ बाँधे जाए तथा राजनीतिक नेतृत्व दृढ़ता से कार्य करे तो भारत हर प्रतिकूल परिस्थिति का सामना करने में समर्थ है। म्यांमार से यह संदेष भी गया है कि पाकिस्तान समझ ले कि उसके क्षेत्र में जो आतंकवादी षिविर चल रहे हैं और जिस तरह भारत में आतंकवाद को वह बढ़ावा दे रहा है, अब उसका भी प्रतिकार किया जाएगा। पाकिस्तान की प्रतिक्रिया, उसकी तिलमिलाहट और चोर की दाढ़ी में तिनका वाली कहावत को चरितार्थ करने वाली है। चीन को भी यह संदेष गया है कि अब 1962 वाला भारत नहीं है जो हमारी सीमाओं को छल-बल से छीनने की कोषिष करे और हम षान्त बैठे रहें। म्यांमार में की गयी कार्यवाही राश्ट्रीय अभिमान का विशय है जिसका हर भारतीय ने गर्व के साथ समर्थन किया है। गत वर्श दिसम्बर में जो नौका भारतीय कोस्टगार्ड के द्वारा गुजरात की समुद्री सीमा में आतंकी होने की आषंका में मार गिरायी गयी थी तभी से यह संकेत मिल गया था कि भारत की रणनीति और राश्ट्रीय सुरक्षा के चितंन में चरित्रगत बदलाव चुका है। अब यह संदेष भी इस प्रतिक्रिया से प्रकट हुआ है कि राश्ट्रीय सुरक्षा याचना का विशय नहीं है। एक सक्षम और समर्थ राश्ट्र ही षांति और विकास के रास्ते पर आगे बढ़ सकता है।
                हालांकि म्यांमार सरकार ने बाद में एक बयान दिया कि भारतीय सेना की कार्यवाही भारतीय सीमारेखा के भीतर ही की गयी थी और म्यांमार सरकार किसी भी दूसरे राश्ट्र को ऐसी कोई भी सैन्य कार्यवाही करने की अनुमति अपने देष के भीतर करने नहीं देगी लेकिन यह बयान राजनयिक अधिक है जिसके हिंद महासागर में कूटनीतिक निहितार्थ है और Ÿार-पूर्व के देषों सहित दक्षिण एषिया तथा चीन को म्यांमार ने यह संदेष देने का प्रयास किया है कि भारतीय सेना की इस कार्यवाही में म्यांमार सरकार या सेना का कोई सहयोग नहीं था। यह उस देष की राजनयिक विवषता की अभिव्यक्ति है जो सार्वजनिक तौर पर वैष्विक समुदाय को यह संदेष नहीं देना चाहता कि किसी दुबर्लता के कारण म्यांमार ने भारतीय सैन्य कार्यवाही करने की अनुमति किसी प्रकार के दबाव या प्रलोभन में आकर दी। भारतीय प्रधानमंत्री सहित हमारे रक्षा प्रतिश्ठान, राश्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार, थलसेना अध्यक्ष, गृह एवं रक्षा मंत्रालय ने जिस प्रकार तत्परता और षीघ्रता के साथ समन्वय, संवाद और आवष्यक गोपनीयता बरतते हुए इस निर्णय को प्रभावी परिणाम तक पहुँचाया उससे भी एक संदेष प्रकट होता है कि भारत ऐसे किसी भी राश्ट्रीय हित से जुड़े विशय पर ठोस कार्यवाही कर सकता है, जिससे हमारी राश्ट्रीय सुरक्षा और संप्रभुता जुड़ी है बषर्ते कि राजनीतिक नेतृत्व दृढ़ता का प्रदर्षन करे।   
डाॅ0 प्रत्यूशमणि त्रिपाठी, निदेषक, वैद्स आईसीएस लखनऊ
               


Thursday, 21 May 2015

My New Article on 1 year of Modi Sarkar

अच्छे दिन की हकीकत
मोदी सरकार के एक वर्श पूरा होने पर यह चर्चा जोर-षोर से हो रही है कि क्या वास्तव में अच्छे दिन आ गये जैसा कि भाजपा ने लोकसभा के अपने चुनाव प्रचार के दौरान कहा था। विपक्षी दलों का मानना है कि उपलब्धियों के नाम पर सिर्फ षून्य है, केवल बड़ी-बड़ी बाते की गयीं, लोकलुभावन सपने दिखाए गए, यहाँ तक कि काला धन वापस लाना भी केवल एक राजनीतिक जुमला भर था। सरकार के आलोचक यह भी कहते हैं कि मोदी सिर्फ विदेषी दौरों पर रहते हैं और देष की समस्याओं पर ध्यान देने के लिए न उनके पास समय है और न उनकी प्राथमिकता है। किसानों की आत्महत्या, फसलों पर मौसम की मार, लगातार बढ़ती हुई मंहगाई, जीएसटी विधेयक और भूमि अधिग्रहण कानून पर होने वाला विवाद, कुल मिलाकर इन सबने सरकार के लिए एक नकारात्मक स्थिति पैदा की है लेकिन यदि एक वर्श के कार्यकाल का निश्पक्ष मूल्यांकन किया जाए तो श्री नरेन्द्र मोदी की सरकार ने कई उपलब्धियां हासिल की है। कई सालों बाद संसद में अपेक्षा से अधिक कामकाज हुआ, 40 से अधिक विधेयक पारित हुए, भारत-बांग्लादेष सीमा विवाद पर कानून बना और सरकार तेजी से काम करती हुई भी दिखाई-सुनाई पड़ी। यह एक बड़ी राजनीतिक उपलब्धि है कि एक वर्श का समय बीतने के बावजूद अभी तक भ्रश्टाचार, घपले या घोटाले का कोई आरोप सरकार पर नही लगा और मोदी सरकार ने अन्तर्राश्ट्रीय स्तर पर भारत की साख और प्रतिश्ठा में वृद्धि की है तथा भारत को एक उभरती हुई महाषक्ति के रूप में पूरे विष्व की मान्यता मिली है। अमेरिका, चीन, जापान सहित पड़ोसी देषों के साथ भी हमारे संबंध पुनर्जीवित हो रहे हैं। श्री नरेन्द्र मोदी की विदेष यात्राओं ने भारत को विष्व विमर्ष की परिधि में ला दिया है लेकिन फिर भी जनता के मन में वो उत्साह और सरकार के प्रति वैसा समर्थन नहीं है जैसा कि श्री नरेन्द्र मोदी से एक साल पहले लोगांे की अपेक्षाएं थी। उसके पीछे कारण यह है कि बिजली, सड़क, पानी, स्वास्थ्य, षिक्षा, रोजगार और आवास जैसे मसले जो हर साधारण इन्सान को सीधे और गहरे प्रभावित करते हैं, उनमें कोई सकारात्मक परिवर्तन और सुधार होता नहीं दिखाई दिया। श्री नरेन्द्र मोदी ने जनता के मन में जो ऊँचे-ऊँचे सपने और मंसूबे पैदा कर दिए थे वे एक साल बीतने पर भी यथार्थ में बदलते नहीं दिखाई दे रहे हैं। जनता रातो-रात जैसा परिवर्तन चाहती है वैसा यथार्थ में हो पाना संभव भी नहीं है। नागरिक हितों से जुड़े ज्यादातर विशय राज्य सरकार की मषीनरी से संचालित और प्रभावित होते हैं साथ ही गत वर्शों में श्री मनमोहन सिंह की सरकार में जिस नीति-निर्णय पक्षाघात की स्थिति पैदा हो गयी थी, नवाचार और पहल करने की कार्य-संस्कृति लगभग समाप्त हो चुकी थी, उसे फिर से जीवित और सक्रिय करना विरोधी राज्य सरकारों को साथ में लेकर चलना और कहे गये हर वादे को साल भर के अन्दर पूरा कर देना संभव भी नहीं है फिर भी सरकार की कार्यषैली, प्रभाव और परिणाम सन्तोशजनक है। जैसे-जैसे समय बीतेगा, जमीन पर सपने आकार लेते दिखाई देंगे। इतने विषाल, विशमता और विविधता से भरे देष को विकास की राह पर एक साथ लेकर चलना यूँ भी कोई आसान काम नहीं है। इसलिए सरकार की हकीकत को समझने के लिए हमें कुछ और वक्त देना होगा। जैसा कि दुश्यंत कहते हैं-
’’इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है,
नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है।
एक चिंगारी कहीं से ढूँढ़ लाओ दोस्तो,
इस दिये में तेल से भीगी हुई बाती तो है।।’’
डा0 प्रत्यूश मणि त्रिपाठी, निदेषक वैद्स आईसीएस लखनऊ

Thursday, 7 May 2015

My New Article न्यायिक नियुक्ति आयोग का विवाद


    पिछले दिनों भारत के प्रधान न्यायाधीष ने उस बैठक में जाने से इन्कार कर दिया जो न्यायिक नियुक्ति आयोग के सदस्यों के चयन के लिए बुलायी गयी थी जिसमें प्रधानमंत्री सहित नेता विपक्ष / सबसे बड़े विपक्षी दल एवं प्रधान न्यायाधीष को उन दो ख्यातिप्राप्त व्यक्तियों का चयन करना था जो इस आयोग के सदस्य होंगेे। प्रधान न्यायाधीष ने इस बैठक में भाग लेने से यह कहते हुए मना कर दिया कि जब तक न्यायिक नियुक्ति आयोग पर संविधान पीठ का निर्णय नहीं आ जाता, वे उस चयन समिति में कैसे भाग ले सकते हैं जो आयोग के गठन और संरचना का हिस्सा है। उनके इस एक निर्णय से कई समस्यायें पैदा हो गयी जैसे कि- 1. क्या जब तक निर्णय नहीं आ जाता, न्यायाधीषों की नियुक्ति रूकी रहेगी? 2. क्या इससे सर्वोच्च और उच्च न्यायालय में लंबित मुकदमों का कार्यबोझ और नहीं बढ़ जाएगा? 3. क्या इससे वादकारियों का हित प्रभावित नहीं होगा? 4. क्या कोई निष्चित समय-सीमा तय है जिसके भीतर संविधान पीठ अपना निर्णय दे देगी? 5. क्या इससे एक अनावष्यक संवैधानिक विवाद नहीं पैदा हो गया जिससे बचा जा सकता था?
 न्याय एक सर्वोच्च सामाजिक और व्यक्तिगत अभिलाशा है। विलंब से किया गया न्याय, अन्याय ही है। अतीत में ऐसे अनेक उदाहरण है जब न्यायालय ने पारित अधिनियमों और संवैधानिक संषोधनों को निरस्त किया है। इसलिए इसमें ऐसी कोई नई बात नही है कि यदि जब तक वर्तमान न्यायिक नियुक्ति आयोग को अवैध या निरस्त घोशित नहीं कर दिया जाता, न्यायिक नियुक्ति की प्रक्रिया चलती रहती। स्वयं प्रधान न्यायाधीष ने संविधान के अनुपालन की षपथ ली हुई है अतः जिस संवैधानिक प्रावधानों और प्रक्रियाओं के अनुसार संसद द्वारा पारित अधिनियम के द्वारा न्यायिक नियुक्ति आयोग का गठन किया गया है और उसमें सदस्यों के चयन की जो प्रक्रिया दी गयी है वह तब तक विधिमान्य और संवैधानिक है जब तक सर्वोच्च न्यायालय द्वारा उसे विधिषून्य घोशित नहीं कर दिया जाता। अतः उक्त बैठक या इसकी प्रक्रिया से अपने को अलग रखना संवैधानिक या विधिसम्मत नहीं माना जा सकता। यदि संसद को विधायन का अधिकार है तो निष्चित रूप से विधि के निवर्चन का अधिकार न्यायपालिका को है। एडवोकेट आॅन रिकार्ड बनाम भारत संघ, 1994 के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था श्बवदेजपजनजपवद पे ूींज जीम रनकहमे ेंल पज पेण्श् अर्थात् संविधान वह है जैसा कि न्यायाधीष कहें। यह उक्ति भारतीय प्रसंग संदर्भ पूर्णतया स्वीकार्य और सत्य है किन्तु न्यायाधीषों की नियुक्ति में विलंब अथवा अग्रिम आदेषों तक रोक लगने से या न्यायिक नियुक्ति की प्रक्रिया अवरूद्ध हो जाने से देष की व्यापक न्यायिक क्षति ही होगी। यदि भविश्य में संविधान पीठ द्वारा न्यायिक नियुक्ति आयोग को और संबंधित संषोधन अधिनियम को विधिषून्यघोशित कर भी दिया जाता है तो आगे से न्यायालय के निर्देषानुसार ही नियुक्ति प्रक्रिया जारी रखी जा सकती है किन्तु वर्तमान में नियुक्ति प्रक्रिया को अवरूद्ध करना न्यायोचित नहीं है। यदि संविधान पीठ द्वारा यह निर्णय आता है कि न्यायिक नियुक्ति आयोग, विधि और संविधान सम्मत है तो तब तक जितने अमूल्य समय की क्षति हो चुकी होगी, उसकी भरपाई कैसे की जा सकेगी? यद्यपि यह प्रधान न्यायाधीष का व्यक्तिगत निर्णय है कि वे इस पर पुनर्विचार करें अथवा नहीं किन्तु लोकानुग्रह की आकांक्षा से यही अभिप्रेरित है कि वे ऐसा करें।
डाॅ0 प्रत्यूश मणि त्रिपाठी,
निदेषक, वैद्स आईसीएस लखनऊ

Thursday, 16 April 2015

Stars of VAID ICS selected in UPPCS 2013 (Result declared on 2015)















New Article on Farmer's Issues or problems

किसानों का संकट
हे ग्राम देवता, तुमको प्रणाम। इस तरह की आकर्शक, कर्णप्रिय और सुंदर पक्तियां हम प्रायः सुनत-पढ़ते रहते हैं लेकिन यथार्थ के धरातल पर उनके लिए कुछ होता नही दिखता। इस बार भी बिन मौसम की बरसात और बदलते जलवायु चक्र ने लगभग पूरे उŸार भारत में फसलों को बरबाद कर दिया है, कई किसानों ने आत्महत्यायें कर ली और कई फिर से तंगहाली और कर्ज के जाल में फंस गये हैं लेकिन सरकार से उनको मुआवजा और राहत के नाम पर उनको सिर्फ आष्वासन या मजाक मिला।
एक कृशि प्रधान देष होते हुए भी भारत में खेती-किसानी करने वालांे की ऐसी दयनीय स्थिति और दुर्दषा क्यों है। कोई भी अपने बच्चें को किसान नहीं बनाना चाहता। खेती-किसानी करना गरीबी, पिछड़ापन और आर्थिक तंगी का पर्याय माना जाता है। जबकि आज भी देष में अधिकांष जनसंख्या खेती और खेती से जुड़े उद्योगों पर निर्भर करती है, जिन्हें हम अन्नदाता कहते हैं उन्हीं की स्थिति देष में सबसे खराब है। दरअसल इस देष में जवान और किसान तभी याद आते हैं जब हमारे सामने कोई बड़ा संकट खड़ा हो जाता है। लगातार बढ़ती जनसंख्या और मानसून पर निर्भरता होने के बावजूद हमारे देष के किसानों ने अभूतपूर्व पैदावार दिया है लेकिन हमारी सरकार अभी तक ऐसी भंडारण क्षमता और फसल सुरक्षा प्रणाली क्षमता का निर्माण नहीं कर पायी जिससे हम खेती किसानी करने वालों की आर्थिक सुरक्षा सुनिष्चित कर सके और देष को हमेषा के लिए खाद्य संकट से मुक्ति दिला सकें।
आज किसानों के सामने सबसे बड़ा संकट मौसम की मार और आर्थिक असुरक्षा है। उनकी कोई निर्धारित आय नहीं है। खेती आज भी जोखिम और घाटे का सौदा है। मंडी व्यवस्था में फसल और उपज का मूल्य व्यापारी और बिचैलियों के हितों में अधिक है। कृशि लागत और मूल्य आयोग (सीएसीपी) आज तक ऐसी समर्थन या मूल्य प्रणाली नहीं बना पाया जिससे किसानों की आर्थिक असुरक्षा को दूर किया जा सके। किसानों का संकट सिर्फ किसानों का नहीं है यह पूरे देष का संकट है और अगर इस देष का किसान परेषान और खस्ताहाल रहेगा तो कोई भी दूसरा वर्ग सुखी और खुषहाल नहीं रह सकता। इसलिए कुछ सुझाव हैं - कुछ ऐसी व्यवस्था की जाये जिससे किसानों की एक न्यूनतम निर्धारित एवं मासिक आय हो, जो कि बहुत मुष्किल काम नहीं है। राजनीतिक दूरदर्षिता और प्रषासनिक कौषल के साथ यह काम सीएसीपी कर सकता है जिसमें अर्थषास्त्री और सांख्यकिकीविद किसान की फसल का एक औसत वार्शिक मूल्य निकाल सकें और सरकार द्वारा उन्हें एक न्यूनतम, निर्धारित पारिश्रमिक दिया जाये। एक निर्धारित मात्रा से अधिक कृशि स्रोतों से होने वाली वार्शिक आय को कर के दायरें में लाया जाये ताकि जो खेती-किसानी के नाम पर अपनी कर योग्य धनराषि को बचा ले जाते हैं वे इसका लाभ न उठा सके और वास्तविक किसान को ही सरकारी योजनाओं, सब्सिडी इत्यादि का लाभ मिलें। प्रधानमंत्री जन धन योजना, आधार और मोबाइल से देष के प्रत्येक किसान का सूचना और डाटा बैंक तैयार किया जाये और सारी राहत, सब्सिडी व अन्य धनराषि सीधे उनके खातों में हस्तानांतरित की जाये। वास्तविक किसान और दिखावटी किसान के बीच के अन्तर को समझा जाये ताकि देष का अन्नदाता सक्षम और समर्थ हो सके।
डाॅ0 प्रत्यूश मणि त्रिपाठी, निदेषक वैद आईसीएस लखनऊ
    

New Article on न्यायिक नियुक्ति आयोग पर विवाद

न्यायिक नियुक्ति आयोग पर विवाद
7 अप्रैल, 2015 को सर्वोच्च न्यायालय ने राश्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग के गठन पर रिट याचिका स्वीकार करते हुए इसे एक वृहद् संवैधानिक पीठ को सौंपने का निर्णय किया है। इससे फिर से न्यायाधीषों की नियुक्ति का विवाद सामने आ गया है। कानून और संविधान के जानकार फली. एस. नरीमन और पूर्व कानून मंत्री कपिल सिब्बल ने भी प्रस्तावित आयोग को न्यायपालिका की स्वतंत्रता तथा बुनियादी ढांचें के सिद्धान्त के विपरीत बताया था। 1993 में न्यायमूर्ति जे. एस. वर्मा की अध्यक्षता में 9-सदस्यीय संविधान पीठ ने यह निर्णय लिया था कि न्यायाधीषों की नियुक्ति में भारत के प्रधान न्यायाधीष का परामर्ष राश्ट्रपति पर बंधनकारी होगा तथा इसके पूर्व एस. पी. गुप्ता बनाम भारत संघ और एडवोकेट आॅन रिकाॅर्ड निर्णय में भी कुछ इसी तरह की राय व्यक्त की गयी थी, तभी से भारत में सर्वोच्च और उच्च न्यायालयों में न्यायाधीषों की नियुक्ति एक काॅलेजियम के परामर्ष से राश्ट्रपति के द्वारा की जाती रही है। विवाद इस बिन्दु पर रहा है कि प्रायः न्यायाधीषों ने नियुक्ति में अपने ही सगे-सम्बन्धियों को वरीयता दी तथा सरकार एवं कार्यपालिका का न्यायाधीषों की नियुक्ति में कोई भी हस्तक्षेप एवं भूमिका नहीं है जिसके कारण न्यायपालिका में न्यायाधीषों की नियुक्ति स्वयं न्यायाधीष ही करते रहे हैं जबकि अन्य देषों में जैसे कि अमेरिका में राश्ट्रपति सीनेट की स्वीकृति से, इंग्लैंड में न्यायिक नियुक्ति आयोग के द्वारा, कनाडा में प्रधानमंत्री और कानून मंत्री की सलाह से तथा आॅस्ट्रेलिया में न्यायिक नियुक्ति की सिफारिषें एटार्नी जनरल, गवर्नर जनरल को भेजते हैं और इस प्रकार न्यायाधीषों की नियुक्ति में एकमात्र अकेले न्यायपालिका की ही भूमिका नहीं है। अतीत में ऐसे कई अप्रिय विवाद भी हुए हैं जिसमें कि भारत में न्यायाधीषों की नियुक्ति पर उंगलियां उठीं एवं नियुक्तियों को संदिग्ध निश्ठा के आधार पर देखा गया। ऐसा ही एक मामला न्यायमूर्ति मार्कन्डेय काटजू ने कुछ महीनों पहले अपने एक लेख में उजागर किया था जब वे स्वयं मद्रास उच्च न्यायालय में बतौर मुख्य न्यायाधीष कार्य कर रहे थें।
न्यायपालिका को पूर्णतया किसी भी प्रकार के संदेह से परे होना चाहिए एवं स्वयं इस नवाचार की पहल करते हुए न्यायिक नियुक्तियों में षुचिता, पारदर्षिता और तटस्थता के सिद्धान्तों का अनुपालन करना चाहिए क्योंकि इससे न सिर्फ जनसाधारण में न्यायपालिका की गरिमा और प्रतिश्ठा बढ़ेगी बल्कि इस प्रकार के विवाद और आरोपों से भी वह बच सकेगी जिसमें कि न्यायिक नियुक्तियों में भाई-भतीजावाद या अन्य विवादों के आरोप लगते रहे हैं। पारित 99वें संविधान संषोधन, 2014 केे द्वारा अनुच्छेद 124 में परिवर्तन करते हुए जिस राश्ट्रीय नियुक्ति आयोग के गठन का प्रावधान किया गया है अब वह कानून ही न्यायिक समीक्षा के अधीन आ गया है और यह देखना होगा कि न्यायपालिका किस तरह से संतुलन साधते हुए न्यायिक नियुक्तियों की षुचिता और अपने प्रामाणिकता एवं स्वतंत्रता बनाये रख सकेगी।
--डाॅ. प्रत्यूश मणि त्रिपाठी,
निदेषक, वैद आईसीएस लखनऊ

Sunday, 22 March 2015

New Article related to Terrorism


आतंक की ’मुफ्ती’ सोच
 जम्मू-कष्मीर में पीडीपी-बीजेपी सरकार बनने के बाद 20 मार्च 2015 को कठुआ जिले के सीमा से सटे एक थाने पर जिस तरह आतंकी हमला हुआ और हमारे पुलिस के जवान षहीद हुए तथा आतंकियों ने न सिर्फ थाने पर कब्जा कर लिया बल्कि एक बार फिर उस खतरे की घंटी बजा दी जिसको लगातार राज्य की मुफ्ती सरकार नज़रअंदाज करती रही है। चुनाव के ठीक बाद पाकिस्तान, आतंकियों, हुर्रियत और सीमापार के सहयोग के कारण भारी मतदान षांतिपूर्ण तरीके से हुआ, ऐसी मुफ्ती साहब की सोच है। उसके ठीक बाद कट्टरपंथी और अलगावादी नेता मसरत आलम की रिहाई का फैसला, यह भी मुफ्ती साहब की सोच है। जाहिर है कि वे भारत के एक राज्य के मुख्यमंत्री के तौर पर कम और सीमापार के सहयोगी के रूप में अधिक कार्य करते दिखाई दे रहे हैं। उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि जम्म-कष्मीर में बड़ी तादाद में लोगों ने निकलकर षांतिपूर्ण तरीके से न सिर्फ मतदान में बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया बल्कि भारतीय राश्ट्रराज्य की व्यवस्था में अपना विष्वास भी जताया है। इसके लिए हमारे देष का निर्वाचन आयोग, सेनाआंे और सुरक्षा बलों की तत्पर कार्यवाही, स्थानीय प्रषासन और खुद जम्मू-कष्मीर के लोग प्रषंसा के पात्र हैं। मुफ्ती साहब इन सबकी अनदेखी करके न सिर्फ उस जनादेष की अवज्ञा कर रहे हैं बल्कि उन संवैधानिक प्रावधानों का भी पालन नहीं कर रहे हैं जिसके तहत उन्होंने बतौर मुख्यमंत्री षपथ ली है। यह ठीक है कि जम्मू-कष्मीर एक बेहद जटिल और संवेदनषील राजनीतिक मसला है लेकिन देष की सुरक्षा अमनोआमान और संप्रभुता से खिलवाड़ करने की इजाजत किसी को नहीं दी जा सकती। मुफ्ती साहब की राजनीतिक मजबूरियां कुछ भी हांे अब वे राज्य के मुख्यमंत्री हैं और राज्य की कानून व्यवस्था बनाये रखना उनकी पहली महŸवपूर्ण जि़म्मेदारी है। बीजेपी को भी यह सोचना होगा कि विपरीत ध्रुव वाले सिद्धान्त, सोच और राजनीतिक विचारधारा के साथ जो गठबंधन उन्होंने किया है उसकी जिम्मेदारी से यह कह कर बच नहीं सकते कि मुफ्ती सरकार ने ऐसे संवेदनषील मसलों पर उनसे कोई चर्चा या पूर्व परामर्ष नहीं किया था। आज जम्मू-कष्मीर सिर्फ और सिर्फ विकास और समृद्धि चाहता है, अलगाव या बंटवारा नहीं। लंबे समय से चली आ रही आतंकी परिस्थितियों के कारण राज्य का विकास, पर्यटन उद्योग और आम कष्मीरी नागरिक बुरी तरह से त्रस्त और प्रभावित रहा है। इसमंे भी सबसे दयनीय स्थिति उन लाखों कष्मीरी पंडितों की है जिन्हें अपनी जड़ो और घरों से उजड़ने का दुख और दंष अपने ही राज्य में झेलना पड़ा है। अगर इस राज्य की समस्या को सुलझाना है तो इसे सिर्फ और सिर्फ जम्मू-कष्मीर के लोग और भारत सरकार आपसी सहयोग और संवाद से समस्याओं को दूर कर सकते हैं। मुफ्ती साहब इतिहास के उस मुहाने पर खड़े हैं जहां से आने वाले समय में वे सूबे की नई तकदीर लिख सकते हैं या फिर अपनी गलत सियासी सोच और मंसूबों को पूरा कर सकते हैं। दोनों काम एक साथ नहीं हो सकते। दुश्यंत की याद आती है जो कहते थें-
’’उनके पांव के नीचे कोई जमीं नहीं,
कमाल ये है कि फिर उन्हें यकीन नही,
मैं बेपनाह अंधेरों को सुबह कैसे कहँू,
मैं इन नजारों का अंधा तमाषबीन नहीं।’’

डाॅ प्रत्यूशमणि त्रिपाठी