Monday 3 August 2015

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आपात बम

हाल ही मंे भाजपा के वरिश्ठ नेता श्री लालकृश्ण आडवाणी ने एक साक्षात्कार में फिर से आपातकाल लग सकने की जो आषंका व्यक्त की उस पर सियासी घमासान मचना स्वाभाविक ही था और अलग-अलग राजनीतिक दलों ने अपने-अपने हितों और विचारधाराओं के अनुसार उसकी व्याख्या की और निहितार्थ निकाले। आडवाणी जी का संदर्भ और अभिप्राय जो भी रहा हो सत्य यह है कि अब 1975 का भारत नहीं है और परिस्थितियाँ बहुत बदल चुकी है। अत्यधिक सक्रिय मीडिया, जागरूक न्यायपालिका, लामबन्द विपक्ष और अपने अधिकारों की ओर सजग होता हुआ नागरिक समाज 40 साल पहले भारत में नहीं था। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीष न्यायमूर्ति जगमोहन लाल सिन्हा द्वारा जब जून 1975 में श्रीमती इन्दिरा गाँधी का निर्वाचन निरस्त कर दिया गया और तत्कालीन परिस्थितियों में श्रीमती इन्दिरा गाँधी के द्वारा जिस जल्दबाजी और हताषा में आपातकाल लगाने का निर्णय राश्ट्रपति फखरूद्दीन अली अहमद ने किया था उससे लोकतंत्र और नागरिक समाज दोनों की भारी क्षति हुई। हालाँकि, उसके बाद कांगे्रस विरोध पर जनता पार्टी और सहयोगी दलों की जो सरकार बनी, वो अपने अन्तर्विरोधों से ही ध्वस्त हो गयी लेकिन जाते-जाते 44वें संषोधन 1978 के द्वारा जो कुछ उपाय और प्रावधान राश्ट्रीय आपात के संदर्भ में जोड़ दिए गए उसके कारण अब कोई भी सरकार सहज रूप से आपातकाल लगाने का जोखिम और दुस्साहस नहीं कर सकती जब तक कि वह एकमात्र और अन्तिम विकल्प न हो। इस संषोधन से यह अनिवार्य कर दिया गया कि राश्ट्रपति मात्र एक प्रधानमंत्री के कहने पर आपातकाल की घोशणा नहीं कर सकतें जब तक कि इसकी लिखित संस्तुति समस्त मंत्रिमंडल द्वारा न की जाए। साथ ही एस आर बोम्मई बनाम भारत संघ /4 असेम्बली विघटन निर्णय /राश्ट्रपति षासन निर्णय इत्यादि में सर्वोच्च न्यायालय ने जिस तरह से राश्ट्रपति षासन और अनुच्छेद 356 की समीक्षा की है उसके कारण अब लगभग सभी आपातकालीन प्रावधान (अनुच्छेद 352 से 360) न्यायिक पुनरावलोकन के अधीन आ गए हैं। इसलिए अब किसी भी  राजनीतिक दल की सरकार द्वारा आपातकाल लगाना स्वयं पर कुठाराघात करना होगा। इसलिए श्री आडवाणीजी की आषंका निर्मूल है। उनकी व्यक्तिगत अभिव्यक्ति दरअसल उनकी हताषा और उपेक्षा की अभिव्यक्ति है। 

आज़ादी के बाद से भारत में लगातार लोकतंत्र की जड़े मजबूत हुई हैं। क्षेत्रीय राजनीतिक दलों का उभार हुआ है। स्थानीय महŸवाकांक्षाओं ने राश्ट्रीय स्तर पर अपना ध्यान खींचा है और भारतीय उपमहाद्वीप में भारत ही एकमात्र देष है जहाँ कभी भी सैनिक षासन और तानाषाही पनपने नहीं पायी। जबकि हमारे पड़ोसी देषों में सेनाएं बैरकों और छावनियों से सŸाा प्रतिश्ठानों तक कई बार आयी-गयी हैं। अपवादस्वरूप श्रीमती इन्दिरा गाँधी का 1975-77 का कार्यकाल निष्चित रूप से लोकतंत्र के लिए खतरा था और उनमें कुछ अधिनायकवादी प्रवृŸिायाँ भी थीं किन्तु बतौर प्रधानमंत्री उनका षेश कार्यकाल देष के विकास और सषक्तिकरण का समय रहा है। इसलिए आज के दौर में आपातकाल की पुनरावृŸिा संभव नहीं है। ऐसा व्यक्त करना भी देष के सामूहिक लोकतांत्रिक चेतना पर आघात करना है। हमें देष के भविश्य के प्रति आषान्वित और सकारात्मक रहना चाहिए और लोकतांत्रिक तौर-तरीकों से निर्वाचित सरकार पर बेहतर कार्य करने के लिए लगातार दबाव भी बनाना चाहिए। इसलिए आपातकाल दोहराने की बात करने वाले सभी लोगों को दुश्यंत का एक षेर और बात खत्म।

उनके पांव के नीचे कोई जमीन नहीं,
कमाल ये है कि फिर भी उन्हें यकीन नहीं।
मैं बेपनाह अधेंरों को सुबह कैसे कहूँ ?
मैं इन नज़ारों का अंधा तमाषबीन नहीं।

-डा. प्रत्यूशमणि त्रिपाठी, निदेषक, वैद्स आईसीएस लखनऊ   

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