चुनावी चंदा और राजनीतिक सुधार
भारत में जितने जरूरी आर्थिक, प्रषासनिक और न्यायिक सुधार हैं उतने ही जरूरी राजनीतिक और निर्वाचन सुधार भी हैं। अभी हाल ही में आम आदमी पार्टी द्वारा संदिग्ध और अनुचित तरीके से चंदा लेने का जो मामला प्रकाष में आया उस पर फिर से सभी राजनीतिक दलों द्वारा आरोप-प्रत्यारोप षुरू हो गये। सच्चाई क्या है यह तो जांच के बाद ही पता चलेगा लेकिन सच यह है कि हर राजनीतिक दल वास्तव में चुनाव सुधार, चंदा लेने में पारदर्षिता, आंतरिक लोकतंत्र और सूचना के अधिकार से खुद को दूर ही रखना चाहता है अन्यथा क्या कारण है कि केन्द्रीय सूचना आयोग के दिषा-निर्देष के बावजूद राजनीतिक दलों ने न तो जनसूचना अधिकारी तैनात किए और न ही अब तक प्राप्त चंदों का वास्तविक और आधिकारिक ब्यौरा सार्वजनिक किया है। याद रखिए, भारत में कोई भी सुधार सफल नहीं हो सकते जब तक राजनीतिक और चुनाव सुधार बड़े पैमाने पर और यथार्थ रूप से लागू न किए जाएँ क्योंकि सभी तरह के भ्रश्टाचार की जड़ें कहीं न कहीं चुनाव, चंदा और राजनीतिक दलों के अपारदर्षी तंत्र से जुड़ती है। जाहिर सी बात है कि यदि कोई व्यक्ति या संस्था किसी भी राजनीतिक दल को चंदा देती है तो उसके अपने क्या निहित लाभ या स्वार्थ है? उसका स्रोत क्या है? वह किस जरिए से कमाया गया धन है? और किसी राजनीतिक दल को क्यों दिया जा रहा है? यह सब देष के लिए जानना बेहद जरूरी है। जिस तरह से चुनाव लगातार मंहगा होता जा रहा है, प्रचार-तंत्र, विज्ञापन, पेड न्यूज, मीडिया मतदाताओं को प्रलोभन और अन्य तौरतरीके, जो गलत और गैरकानूनी भी है, चुनाव जीतने के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं, उससे देष का खासा सम्पन्न व्यक्ति भी स्वयं चुनाव लड़ने में सक्षम नहीं हो सकता। राजनीतिक दलों का यह कहना कि वे अपना ब्यौरा चुनाव आयोग को देते हैं तथा आयकर रिटर्न भरते हैं, इसलिए अलग से उसकी सूचना जरूरी नहीं है और यदि कोई इनसे संबंधित सूचनाएं चाहता है तो वह आयोग से इसकी जानकारी ले सकता है, कतई तर्कसंगत और सही नही है। राजनीतिक दल भी निष्चित रूप से लोकप्राधिकारी की श्रेणी में आते हैं क्योंकि 1. सरकार बनाने और गिराने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। 2. उन्हें रियायती दरों पर आवास, कार्यालय इत्यादि के लिए सरकार द्वारा भवन और अन्य सुविधाएं उपलब्ध करायी जाती है। 3. हवाई जहाज, रेलवे, राज्य परिवहन इत्यादि से यात्राओं पर उन्हें भत्ता, कूपन व अन्य रियायतें दी जाती हैं। 4. सरकार द्वारा बिजली, पानी, टेलीफोन, स्टाफ जैसी अन्य सुविधाएं राजकोश के खर्चे पर दी जाती है। 5. वे भारतीय संविधान के तहत देष की राजनीतिक कार्यपालिका का हिस्सा होते हैं, इसलिए वे निष्चित रूप से न सिर्फ सूचना के अधिकार के दायरे में है बल्कि उनके वार्शिक प्राप्तियों पर कुछ न्यूनतम आयकर भी लिया जाना चाहिए और सभी प्रकार के आमदनी, चंदा या अन्य किसी भी स्रोत से विय सहायता का लिखित रिकार्ड उनकी वेबसाइट्स, कार्यालय, आयकर विभाग और चुनाव आयोग को उपलब्ध कराना चाहिए। आखिर क्या कारण है कि इस मुद्दे पर सभी राजनीतिक दल एक हो जाते हैं और राजनीतिक सुधार तथा चुनावी पारदर्षिता के लिए प्रयास नहीं करते? स्वयं प्रधानमंत्री श्री मोदी को इसकी पहल करनी चाहिए और सबसे पहले बीजेपी और उसकी सहयोगी दलों को इस दिषा में कदम उठाते हुए एक निर्णायक और सकारात्मक संदेष राष्ट्र को देना चाहिए वरना श्री अरविंद केजरीवाल की यह धमकी कि अगर मैने कुछ भी गलत किया है तो सरकार मुझे गिरफ्तार करके दिखाए, स्वयं बीजेपी की सत्यनिश्ठा को संदिग्ध करती है।
-डाॅ. प्रत्यूशमणि त्रिपाठी
भारत में जितने जरूरी आर्थिक, प्रषासनिक और न्यायिक सुधार हैं उतने ही जरूरी राजनीतिक और निर्वाचन सुधार भी हैं। अभी हाल ही में आम आदमी पार्टी द्वारा संदिग्ध और अनुचित तरीके से चंदा लेने का जो मामला प्रकाष में आया उस पर फिर से सभी राजनीतिक दलों द्वारा आरोप-प्रत्यारोप षुरू हो गये। सच्चाई क्या है यह तो जांच के बाद ही पता चलेगा लेकिन सच यह है कि हर राजनीतिक दल वास्तव में चुनाव सुधार, चंदा लेने में पारदर्षिता, आंतरिक लोकतंत्र और सूचना के अधिकार से खुद को दूर ही रखना चाहता है अन्यथा क्या कारण है कि केन्द्रीय सूचना आयोग के दिषा-निर्देष के बावजूद राजनीतिक दलों ने न तो जनसूचना अधिकारी तैनात किए और न ही अब तक प्राप्त चंदों का वास्तविक और आधिकारिक ब्यौरा सार्वजनिक किया है। याद रखिए, भारत में कोई भी सुधार सफल नहीं हो सकते जब तक राजनीतिक और चुनाव सुधार बड़े पैमाने पर और यथार्थ रूप से लागू न किए जाएँ क्योंकि सभी तरह के भ्रश्टाचार की जड़ें कहीं न कहीं चुनाव, चंदा और राजनीतिक दलों के अपारदर्षी तंत्र से जुड़ती है। जाहिर सी बात है कि यदि कोई व्यक्ति या संस्था किसी भी राजनीतिक दल को चंदा देती है तो उसके अपने क्या निहित लाभ या स्वार्थ है? उसका स्रोत क्या है? वह किस जरिए से कमाया गया धन है? और किसी राजनीतिक दल को क्यों दिया जा रहा है? यह सब देष के लिए जानना बेहद जरूरी है। जिस तरह से चुनाव लगातार मंहगा होता जा रहा है, प्रचार-तंत्र, विज्ञापन, पेड न्यूज, मीडिया मतदाताओं को प्रलोभन और अन्य तौरतरीके, जो गलत और गैरकानूनी भी है, चुनाव जीतने के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं, उससे देष का खासा सम्पन्न व्यक्ति भी स्वयं चुनाव लड़ने में सक्षम नहीं हो सकता। राजनीतिक दलों का यह कहना कि वे अपना ब्यौरा चुनाव आयोग को देते हैं तथा आयकर रिटर्न भरते हैं, इसलिए अलग से उसकी सूचना जरूरी नहीं है और यदि कोई इनसे संबंधित सूचनाएं चाहता है तो वह आयोग से इसकी जानकारी ले सकता है, कतई तर्कसंगत और सही नही है। राजनीतिक दल भी निष्चित रूप से लोकप्राधिकारी की श्रेणी में आते हैं क्योंकि 1. सरकार बनाने और गिराने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। 2. उन्हें रियायती दरों पर आवास, कार्यालय इत्यादि के लिए सरकार द्वारा भवन और अन्य सुविधाएं उपलब्ध करायी जाती है। 3. हवाई जहाज, रेलवे, राज्य परिवहन इत्यादि से यात्राओं पर उन्हें भत्ता, कूपन व अन्य रियायतें दी जाती हैं। 4. सरकार द्वारा बिजली, पानी, टेलीफोन, स्टाफ जैसी अन्य सुविधाएं राजकोश के खर्चे पर दी जाती है। 5. वे भारतीय संविधान के तहत देष की राजनीतिक कार्यपालिका का हिस्सा होते हैं, इसलिए वे निष्चित रूप से न सिर्फ सूचना के अधिकार के दायरे में है बल्कि उनके वार्शिक प्राप्तियों पर कुछ न्यूनतम आयकर भी लिया जाना चाहिए और सभी प्रकार के आमदनी, चंदा या अन्य किसी भी स्रोत से विय सहायता का लिखित रिकार्ड उनकी वेबसाइट्स, कार्यालय, आयकर विभाग और चुनाव आयोग को उपलब्ध कराना चाहिए। आखिर क्या कारण है कि इस मुद्दे पर सभी राजनीतिक दल एक हो जाते हैं और राजनीतिक सुधार तथा चुनावी पारदर्षिता के लिए प्रयास नहीं करते? स्वयं प्रधानमंत्री श्री मोदी को इसकी पहल करनी चाहिए और सबसे पहले बीजेपी और उसकी सहयोगी दलों को इस दिषा में कदम उठाते हुए एक निर्णायक और सकारात्मक संदेष राष्ट्र को देना चाहिए वरना श्री अरविंद केजरीवाल की यह धमकी कि अगर मैने कुछ भी गलत किया है तो सरकार मुझे गिरफ्तार करके दिखाए, स्वयं बीजेपी की सत्यनिश्ठा को संदिग्ध करती है।
-डाॅ. प्रत्यूशमणि त्रिपाठी