Thursday, 25 October 2012

दागदार होते खेल नायक और समाज पर असर 

एक टीवी चैनल के हालिया स्टिंग ने फिर साबित किया कि क्रिकेट जैसे खेल में फिक्सिंग की आंच केवल खिलाडिय़ों तक ही नहीं बल्कि अंपायरों तक पहुंच गई है। श्रीलंका, पाकिस्तान और बांग्लादेश के अंपायरों ने छिपे हुए कैमरे के सामने स्वीकार किया कि उन्हें कुछ गलत फैसलों की एवज में पैसा लेने से इनकार नहीं। इस रहस्योदघाटन ने खेलों की नैतिकता पर फिर सवाल खड़े किये हैं कि जो खेल हम मैदान में देखते हैं वो वाकई कितने स्वस्थ होते हैं। क्रिकेट पर हाल के बरसों में फिक्सिंग के न केवल कई बड़े मामले उजागर हुए हैं बल्कि तमाम मैचों में खिलाडिय़ों के प्रदर्शन और अंपायरों के फैसलों पर सवाल उठते रहे हैं। 
मुझे याद आता है कि करीब एक दशक पहले फिक्सिंग के एक बड़े झकझोर देने वाले मामले में दक्षिण अफ्रीका के लोकप्रिय क्रिकेटर हैंसी क्रोनिए का नाम सामने आया था। किसी को ये विश्वास तक नहीं था कि हैंसी ऐसा कर सकते हैं। वह उस दौर के बेेेहद सम्मानीय क्रिकेटर थे। प्रशंसकों से उन्हें बेपनाह प्यार मिलता था। लोग उनकी लीडरशिप को एक उदाहरण के तौर पर पेश करते थे। जब ये पता लगा कि वह क्रिकेट के भ्रष्टाचार में लिप्त हैं तो ये बहुत निराशा हुई। ये खेल नायकों के पतन का आरंभ था। चूंकि खेल नायकों को हम देवताओं के सदृश प्रतिष्ठित मानते हैं लिहाजा ये उस इमेज पर बहुत गहरा झटका था। ऐसी किसी भी घटना का असर भले तुरंत नहीं दिखेे लेकिन इसका मनौवैज्ञानिक असर समाज पर पड़ता है। 
खेल जगत बेशक कुछ सालों पहले तक भ्रष्टाचार से अछूता लगता था। हालांकि भ्रष्ट आचरण की व्यापकता हमेशा से रही है। हमारा कारपोरेट और राजनीति के लोग हमेशा से इसमें आकंठ डूबे रहे हैं, लिहाजा पतन भी उतना व्यापक तरीके से हो रहा है। ये व्यापक क्षरण समाज की गिरती स्थिति का भी प्रतीक है। 
जब भी खेलों की बात होती है तो स्वस्थ स्पर्धा, स्वस्थ मनोरजंन, ऊर्जा से खिलाड़ी और प्रतिभाओं की एक बेहतर तस्वीर दिमाग में उभरती है। सदियों से खेलों की कल्पना कुछ ऐसी ही की गई है, बल्कि कल्पना क्यों कहें हमने कुछ दशकों पहले तक खेलों को इसी तरह से देखा है। जब 19वीं सदी के आरंभ में पियरे द कुबर्तिन ने दोबारा ओलंपिक खेलों को शुरू करने का सपना देखा तो उनके दिमाग में स्वस्थ खेलों के जरिए अतरराष्ट्रीय जगत में एक स्वस्थ संदेश देकर समाज को सकारात्मक दिशा में आगे बढाना था। ये वो दौर था जब व्यावसायिकता को खेलों से दूर रखने की भरपूर कोशिश की गई, क्योंकि कुबर्तिन ने तभी जान लिया था अगर खेलों में पैसा आ गया तो अपने साथ व्यावसायिकता और धन से जुड़ी कुरुपताएं और अनैतिक लिप्साएं भी लेकर आयेगा। इसलिए ओलंपिक खेलों के शुरू होने के बाद खिलाडिय़ों पर कड़ी नजर रखी जाती थी कि वो अपने खेल हूनर और खेल प्रतिभा को पैसे या बाजार के तराजू पर नहीं तौलें। जब भी कोई खिलाड़ी कोई ऐसा फायदा लेता पाया गया तुरंत उसका पदक छीना गया या उसे प्रतिबंधित कर दिया गया। लेकिन साठ के दशक के आते आते ओलंपिक खेल आंदोलन खुद पैसे और बाजार के कुचक्र में कैद हो गये। कहना चाहिए इसका असर खेलों और खिलाडिय़ों पर जो पड़ा वो अब लगातार नकारात्मक तौर पर सामने आता दिख रहा है। अब खेलों की स्वस्थ स्पर्धा और ईमानदार आचरण की बात तो सिरे से गायब हो गई है बल्कि खेल और खिलाड़ी ड्रग, सेक्स और धन की लिप्साओं में इतने धंस गये हैं कि खेलों की पूरी दुनिया में ही उसकी विद्रूप छाया पडऩे लगी है।
केवल क्रिकेट ही नहीं फुटबाल, बास्केटबाल, ओलंपिक और दूसरे तमाम खेलों में फिक्सिंग, सट्टेबाजी, प्रतिबंधित दवाओं का सेवन सामान्य बात बन गई है। दिक्कत ये है कि इससे जो अविश्वास का एक माहौल पनपा है, उसने नई पीढ़ी, समाज, आचरण, नैतिकता सारे ही पहलुओं को खासा नुकसान पहुंचाया है।
मुझको याद है कि 19७7 के सियोल ओलंपिक खेलों में सौ मीटर के स्वर्ण पदक विजेता बेन जानसन को प्रतिबंधित दवा के सेवन का दोषी पाया गया था। इस रहस्योदघाटन से पूरी दुनिया हिल गई थी। इसने सही मायनों में खेलों में विश्वास की चूलें हिला दी थीं। हालांकि इससे पहले भी तमाम अन्य खेलों में भी चीटिंग की कई घटनाएं हो चुकी थीं लेकिन इसने अहसास दिलाया कि अब खेल के  क्षेत्र में अंधकार की एक दुनिया पनप चुकी है। मैं फिर वही बात दोहराउंगा कि खेल नायक जब ऐसा करते हैं तो इसका गलत तरीके से फायदा गलत तत्व उठाते हैं। वैसे दीगर बात यही है कि खेलों में व्यावसायिकता की शुरुआत और बाजार के दबावों ने भी गलत रास्तों की ओर मोड़ा है। ये सच है कि पैसा जितना वैभव और समृद्धि लेकर आता है, उतनी ही बुराइयां भी साथ लाता है। 
क्रिकेट चूंंंकि हमारे भारतीय उपमहाद्वीप का सबसे लोकप्रिय खेल है, लिहाजा इसमें इस तरह की घटनाएं हमारे अविश्वास को और बढाती हैं। टीवी चैनल के स्टिंग की ताजा कड़ी ये भी बताती है कि केवल क्रिकेटर ही नहीं अंपायर भी इसकी गिरफ्त में हैं। अगर किसी खेल में लगातार ऐसा हो रहा हो तो ये भी लगता है कि इसे संचालित करने वाली संस्थाएं भी कहीं न कहीं अपनी भूमिका में खरी नहीं उतर रही हैं। अब आशंका ये है कि खेल और खिलाडिय़ों की ये अपयश गाथाएं हमें समाज की एक और स्वस्थ परंपरा से महरूम न कर दें।

इस शाहखर्ची को भी देखिये मनमोहन जी 
सरकार राजकीय कोष में कमी का रोना रोते हुए लगातार टैक्स का बोझ बढाने और सब्सिडी हटाने में में लगी है। पिछले तीन चार सालों में बढ़ते टैक्स और जबरदस्त महंगाई ने आज जनता का जीवन दुश्वार कर दिया है। क्रूर मजाक ये कि टैक्स दाताओं से हासिल धन का एक बड़ा हिस्सा  राजशाही और नौकरशाही के ऐशो-आराम, पार्टियों, विदेश यात्राओं समेत अनाप-शनाप खर्चों पर बहा दिया जाता है। सवाल पूछा जाना चाहिए कि ये लोकतंत्र है या लूटतंत्र? प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह नसीहत देते हैं कि पैसा पेड़ पर नहीं उगा करता। क्या ये नसीहत वो सरकार में मौजूदा साथियों, मातहतों और सूबे के हुक्मरानों को देना चाहेंगे? किसी भी पारदर्शी, ईमानदार और सुशासित तंत्र में वाकई सब्सिडी की जरूरत खत्म हो जाती है, क्योंकि उसके कामकाज से देश का हर वर्ग फलता-फूलता है, सबका विकास होता है। लेकिन मौजूदा हाल में तो ऐसा नहीं लगता बल्कि विकास का असली फायदा तेजी से कुछ मुट्ठी भर लोगों तक सिमटता जा रहा है।
कुछ अजीब विरोधाभास दिखते हैं-प्रधानमंत्री के सौजन्य से दी जाने वाली पार्टियों पर हर थाली का रेट करीब साढ़े सात हजार रुपये आता है। उनके मंत्रिमंडल के सदस्यों, आला अफसरानों के यहां तकरीबन रोज ही पार्टियां होती हैं, खर्च निकलता है सरकारी खजाने से। लोकसभा और राज्यसभा के अध्यक्ष हर हफ्ते आलीशान दावतों का आयोजन करते हैं। इस सिरे को बढ़ाकर अगर राज्यों की ओर ले जाएं, तो वहां भी मुख्यमंत्री, राज्यपाल, मंत्री , विधायक, आला अफसर सरकारी दावतों की मेजबानी  में पीछे नहीं रहते। करोड़ों रुपये के फूल रोज सरकारी कार्यालयों में सजाने के लिए खरीदे जाते हैं। करोड़ो रुपये रोज पेट्रोल में बहाये जाते हैं। करोड़ों रुपये रोज तमाम सैर-सपाटों और हवाई यात्राओं में स्वाहा होते हैं। सरकारी बंगलों और आफिसों के सौंदर्यीकरण पर तो खर्च के बारे में पूछिये ही मत। देश में ऐसे सरकारी अमलों की भी कमी नहीं, जो समय के साथ अप्रासंगिक हो चुके हैं, जिनके पास कोई काम नहीं लेकिन हर महीने का करोड़ों का बजट वो फूंक डालते हैं। देश की बदहाली पर सरकारी मशीनरी की संवेदनहीनता हैरतअंगेज है।
मौजूदा योजना आयोग के कार्यकाल में निर्धनता रेखा का आंकलन करने के लिए तीन समितियां चर्चा में रहीं। ये समितियां हैं-तेंदुलकर समिति, सक्सेना समिति और योजना आयोग की आंतरिक आंकलन समिति। देश में गरीबी की स्थिति, मात्रा और प्रतिशत को लेकर तीनों के अलग निष्कर्ष और आंकड़े हैं। सर्वोच्च न्यायालय में योजना आयोग ने हलफनामा दायर करके कहा ग्रामीण क्षेत्रों में २४ रुपये प्रतिदिन और शहरी क्षेत्रों में ३२ रुपये रोज कमाने वाला व्यक्ति गरीब नहीं है। यानि वो गरीबी रेखा से ऊपर है। ये भारतीय नागरिकों के साथ अशोभनीय मजाक नहीं तो और क्या है? ये सोच वाकई समझ से परे है। ये वही योजना आयोग है, जिसने अपने आफिस के टायलेटों के निर्माण पर प्रति टायलेट २२ से २५ लाख रुपयेे खर्च किये। 
है न अजीब कि एक तरफ करोड़ों-अरबों रुपये यूं बहाये जाएं और दूसरी ओर एलपीजी सिलेंडरों और किसानों के काम आने वाले डीजल पर नसीहत देते हुए सब्सिडी हटाई जाए। अगर राजकीय कोष को मजबूत करने के लिए सब्सिडी हटाना जरूरी है तो शायद उससे ज्यादा जरूरत सार्वजनिक जीवन में वैसा आचरण करने की जो गांधी जी जैसे महापुरुष किया करते थे। प्रधानमंत्री की आखिर कौन सी ऐसी मजबूरी है कि वो इन अपव्ययों को रोकने की बजाये बार बार जनता की जेब पर ही डाका डालते हैं, समय आ गया है कि सरकारी प्रश्रय में होने वाले इन अपव्ययों को न केवल रोका जाये बल्कि इन्हें सार्वजनिक भी किया जाये। 
ये भी शोध का विषय है कि सरकार द्वारा आम आदमी पर खर्च की जाने वाली सुविधाओं और योजनाओं की रकम और सरकारी अपव्ययों का अनुपात क्या है? शायद ही किसी अन्य देश में जनता के पैसे को इस तरह उड़ाया जाता हो। दुख की बात ये है कि ये प्रवृत्ति कम होने की बजाये बढती जा रही है। ऐसे भोजों और शाहखर्ची में कोई भी सियासी दल पीछे नहीं। कोई सियासी दल कभी ये सवाल नहीं उठाता कि ६०-७० रुपये प्रति लीटर पेट्रोल, १००० रुपये के सिलेंडर में आधी से ज्यादा रकम टैक्स की होती है, जो तेल कंपनियां हमेशा घाटे का रोना रोती हैं, उनके न केवल संस्थागत खर्च बेहिसाब हैं बल्कि उनके ज्यादातर आयोजन पांच सितारा और सात सितारा होटलों में होते हैं। 
हाल ही में यूपी के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने बेरोजगारी भत्ता बांटने के लिए एक आयोजन किया, जिसमें बेरोजगारों को एक-एक हजार रुपये बांटे गये। बताते हैं कि जितनी रकम इस आयोजन में बेरोजगारों को बांटने में खर्च की गई, उससे दोगुनी इस आयोजन पर हो गई। 
जिस देश की ७० फीसदी जनता अब भी गरीबी का जीवन जी रही हो, जहां अब भी बड़े पैमाने पर लोगों के घरों में महज एक समय का चूल्हा जलना मुश्किल होता हो, वहां नेताओं और नौकरशाहों का ये  आचरण अशोभनीय है। सियासी सांठ-गांठ के लिए ये शाहखर्ची के लिए ये देश सक्षम नहीं। कारपोरेट भी इस मामले में पीछे नहीं। अपनी शाही लाइफस्टाइल और पार्टियों में वह करोड़ों अरबों बहा देते हैं लेकिन इनमें से कई के संस्थानों में उनके कर्मचारियों को कई महीन वेतन नहीं मिलता। प्रधानमंत्री को सचेत हो जाना चाहिए कहीं उनकी तुलना भी उस नीरो से न की जाने लगे, जो जलते हुए रोम की चिता के बीच आराम से बांसुरी बजा रहा था।