Thursday, 19 September 2013

दंगों का मिथक और यथार्थ

मुजफ्फरनगर में हुआ दंगा कोई पहला दंगा नहीं है, जिसके बाद राजनीतिक घमासान शुरू हो गया है और हर राजनीतिक दल एक दूसरे पर दोषारोपण कर रहे हैं. जबकि ये एक सामूहिक और सामाजिक जिम्मेदारी है. यदि अतीत में देखें तो कोई राजनीतिक दल ऐसा नहीं है, जिस पर परोक्ष या अपरोक्ष रूप से वोटबैंक का लाभ कमाने के लिए सांप्रदायिक वैमनस्य और विद्वेष फैलाने के आरोप नहीं लगे हैं. इसलिए अब समय संयम, समझ और कठोर व प्रभावी कार्रवाई करने का है न कि  राजनीतिक गुणा-भाग करने का. 
आज जरूरत इस बात की  है कि उत्तर प्रदेश के सभी दल चाहे समाजवादी पार्टी हो या बीजेपी, कांग्रेस, बीएसपी या अन्य क्षेत्रीय पार्टियां, उनके सभी सम्मानित नेताओं का एक समूह दंगा प्रभावित क्षेत्रों का दौरा करे, पीडि़तों से मिले और एक एक्शन प्लान तैयार किया जाये ताकि भविष्य में ऐसी घटनाएं दोबारा नहीं हों, यही समय पुलिस सुधारों के लिए सर्वाधिक उचित और उपयुक्त है ताकि ऐसे किसी भी मामले में तत्काल विधि सम्मत और ठोस कार्रवाई करने से पहले राजनीति और राजधानी की ओर देखकर संकेतों का अनुमान लगाने और उस आधार पर कार्रवाई करने के लिए किसी का मोहताज नहीं होना पड़े.
निश्चित रूप से इन दंगों से विश्वास को जो चोट पहुंची है, उसे फिर से बहाल करना बहुत मुश्किल होगा. अगर ऐसा हो भी सका तो इसमें काफी समय लग जायेगा. इतना भी तय है कि मुजफ्फरनगर और आसपास के इलाकों में दो संप्रदायों के बीच विश्वास की दरार तो आ ही चुकी है. समाज शास्त्र में कहा गया है - कांफिल्क्ट इज ए सोशल प्रोसेस यानि जब भी कहीं समाज में संघर्ष या द्वंद्व की स्थिति बनती है तो उसके पीछे छोटी-बड़ी घटनाओं की लंबी श्रृंखला होती है, जो अकस्मात किसी एक घटना से विस्फोटक रूप में सामने आती है. लेकिन वह एक घटना संघर्ष के लिए अकेली जिम्मेदार नहीं होती बल्कि पीछे की तमाम छोटी-बड़ी घटनाएं भी उतनी ही बड़ी कारक होती हैं.
मुजफ्फरनगर में जो कुछ हुआ, वो सिर्फ एक घटना का परिणाम नहीं माना जा सकता बल्कि ये विद्वेष और असंतोष की ज्वाला थी, जो धीरे धीरे सुलग रही थी, जिसने मुजफ्फरनगर की हाल की घटना से अनियंत्रित होकर ज्वालामुखी सा विस्फोटक रूप ले लिया. इसके राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक कारण हैं. दंगे का अपना मनोविज्ञान होता है. दंगा कहीं भी हो, छोटा हो या बड़ा हो, उसके पीछे साजिश और सियासी नफा-नुकसान की सोच का अंतर भी होता है. 
मुजफ्फरनगर दंगा इसी सोच की विकृत अभिव्यक्ति है. यहां ये बताना जरूरी है कि पश्चिम उत्तर प्रदेश को कुछ सियासी दल  ..मजगर..यानि मुस्लिम, जाट, गुर्जर और राजपूत के समीकरण के रूप में देखते हैं. इस क्षेत्र की अधिसंख्य आबादी इसी समुदाय की है, जो अपने आर्थिक तानेबाने और सरोकारों से एक-दूसरे से जुड़े हैं। इन दंगों ने सबसे ज्यादा चोट इसी अर्थव्यवस्था और विश्वास को पहुंचाया है. 
बाबरी मस्जिद कांड के पहले भी यहां कभी ऐसा दंगा-फसाद नहीं हुआ, जहां हिन्दू और मुसलमान एक दूसरे के खून के प्यासे हो गये हों और एक दूसरे की बस्तियों को जला दिया हो. आखिरकार इस बार ऐसा क्या हो गया? साजिश में कौन कौन शामिल थे? सरकार और प्रशासनिक अफसरों की क्या भूमिका रही? वो इस हादसे के लिए कितने जिम्मेदार हैं? इस सबकी जांच के लिए जस्टिस विष्णु सहाय की अध्यक्षता में एक जांच समिति गठित कर दी गई है, जो इसके कारणों और कतिपय साजिशी तत्वों का पता लगायेगी? जांच के निष्कर्ष सामने आने में अभी वक्त लगेगा. तब तक के लिए एक पुराना शेर याद आता है-
इबरत फेज है तेरा फसाना सब फसानों में
न समझोगे तो मिट जाओगे हिन्दोस्तां वालों
तुम्हारी दास्तां तकदी होगी दास्तानों में. 
 
..अब दंगों के बाद प्रदेश की अखिलेश यादव सरकार और सियासी दल एक दूसरे पर दोष मढ रहे हैं. और धीरे धीरे ये केवल मुजफ्फरनगर ही नहीं बल्कि पूरे देश की जनता को महसूस हो रहा है कि ये दंगे केवल और केवल राजनीतिक साजिश का नतीजा थे. चुनाव करीब आने के साथ ही सियासी दलों की वोटबैंक की प्रयोगशाला इस तरह के अमानवीय खेल खेलने में लग गई है. 
सबसे दुखद ये है कि जिस समय प्रशासन को चेतना चाहिए था और शुरुआत में ही माहौल को समझकर कार्रवाई करना चाहिए था, तब पुलिस और प्रशासन हाथ पर हाथ धरे बैठे थे. हालांकि कहा जा रहा है कि उनकी इस निष्क्रियता की भी वजहें थीं. माना जा रहा है कि ऊपर से मिल रहे आदेश उनकी कार्रवाई में आड़े आ रहे थे. बाद में दंगों की शासन की नाकामी का ठीकरा भी उन्हीं अफसरों के सिर फोड़ा गया, जो हुक्मरानों के आदेश पर तमाशबीन से बने हुए थे.
दंगे में किसी भी वर्ग और संप्रदाय के व्यक्ति को मारा या लूटा जाये तो उसकी मौत दरअसल इंसानियत की मौत होती है. अब तक अतीत में जो हुआ, उसे न पलट सकते हैं और न ही बदल सकते हैं. लेकिन भविष्य में ऐसा नहीं हो, इसकी ईमानदार और सार्थक कोशिश तो की ही जा सकती है। अभी कई आयोग बैठेंगे. कई समितियां बनेंगी. सियासी दलों के अलग अलग दौरे होंगे, जो किसी विशेष संप्रदाय, वर्ग, जाति और समुदाय के पीडि़तों  और खास प्रभावित क्षेत्रों तक सीमित होकर रह जाएंगे. लेकिन इस सारी कवायद का कोई नतीजा नहीं निकलेगा जब तक कि इसमें सामूहिक चेतना शामिल नहीं हो. प्रशासनिक, न्यायिक और पुलिस सुधार लागू नहीं किये जाएं. और तत्काल दोषियों के खिलाफ कठोर कार्रवाई नहीं हो। इसके अलावा सब कुछ दिखावा और छल है. इसलिए ये सबक लेने का समय है, जागने और झिंझोडऩे का समय है, वर्ना..कस्मेवादे प्यार वफा सब..वादे हैं वादों का क्या..

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