Tuesday, 3 September 2013

राजनीतिक जीवन में पारदर्शिता की आवश्यकता और औचित्य

दो महीने पहले जब सुप्रीम कोर्ट ने जनप्रतिनिधि अधिनियम का निर्वचन करते हुए ये स्पष्ट किया था कि यदि कोई सांसद या विधायक किसी भी अपराध में अदालत द्वारा दो वर्ष या अधिक समय के लिए दंडित किया जाता है तो वह अपने सदन की सदस्यता से अयोग्य हो जायेगा। ऐसा इसलिए जरूरी है क्योंकि संविधान के अनुच्छेद 14 में जो विधि का शासन और समानता का अधिकार सुनिश्चित किया गया है, उसके तहत भारत के सभी नागरिक कानून की नजर में समान हैं और कानून ये तय करता है कि यदि कोई नागरिक, जो  सांसद या विधायक नहीं है, अगर वह किसी अपराध में दो वर्ष या अधिक समय के लिए दंडित होता है तो न चुनाव लड़ सकता है और न ही मताधिकार का इस्तेमाल कर सकता है। ऐसे में सांसदों और विधायकों को ये उन्मुक्ति और विशेषाधिकार क्यों दिया जाये? आखिरकार वो भी भारत के नागरिक हैं, जिन्हें हम सब लोगों ने ही अपना प्रतिनिधि चुना है।
लोक और तंत्र अलग नहीं किये जा सकते। इसलिए सियासी दलों को खुद आगे बढक़र पहल करनी चाहिए। यदि उनके बीच कोई सदस्य अदालत द्वारा दंडित होता है तो वो खुद मिसाल कायम करें और ऐसे लोगों को टिकट नहीं दें या पार्टी की सदस्यता से वंचित करें न कि सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को पलटने के लिए एकजुट हो जाएं. जहां तक इस बात का प्रश्न है कि सत्ताधारी दल या अन्य लोग इस बात का फायदा उठाएंगे। किसी पर भी आरोप लगाकर , जो झूठे और तथ्यहीन भी हो सकते हैं, निर्दोष और ईमानदार लोगों को भी चुनाव लडऩे से रोक दें। तमाम सियासी दलों ने ये आशंका भी जाहिर की है कि किस प्रकार सीबीआई और अन्य सरकारी एजेंसियों के द्वारा विरोधी दलों के नेताओं को बिनवजह झूठे मुकदमों में फंसाया जाता है और सरकार अपनी शक्तियों का बेजा इस्तेमाल करती है। 
निश्चित रूप से ये एक कड़वी सच्चाई है, जिसे अब जाने-अनजाने में राजनीतिक दलों ने स्वीकार किया है, जब वो सत्ता में होते हैं तो वो अपनी शक्तियों का दुरुपयोग करते हैं। इसलिए आज जरूरत इसके दुरूपयोग को रोकने की है न की सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को खत्म करने की। इसीलिए जरूरी हो जाता है कि पुलिस और अन्य सरकारी जांच एजेंसियों को पर्याप्त स्वायत्तता दी जाये। उन्हें राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त रखा जाये।  उनके ऊपर कठोर निगरानी और नियंत्रण के लिए विधायिका की जवाबदेही सुनिश्चित की जाये ताकि स्वायत्तता प्राप्त एजेंसियां खुद अपनी शक्तियों का बेजा इस्तेमाल नहीं कर सकें और ऐसे मामले, जिन पर राजनीतिक दलों के नेताओं और कार्यकर्ताओं पर आपराधिक मुकदमे दर्ज किये गये हों, उनकी सुनवाई के लिए फास्ट ट्रैक कोर्ट या अलग से न्यायाधिकरण बनाया जाये, जो छह माह से सालभर में ऐसे मामलों पर अपना फैसला जरूर सुना दे।
ऐसा करना कठिन या नामुमकिन भी नहीं है। मौजूदा संसाधनों  में आज ये किया जा सकता है।  बात बस राजनीतिक और प्रशासनिक इच्छाशक्ति और मंतव्य की  है। ये भी तय करना होगा कि यदि कोई ऐसे झूठे आरोप लगाता है तो उसके खिलाफ भी कठोर दंडात्मक कार्रवाई का प्रावधान हो। इसी तरह सूचना के  अधिकार के तहत सियासी दलों को स्वयं को लोकप्राधिकारी मानते हुए जनता और लोकतंत्र के प्रति अपनी जिम्मेदारी के प्रति अधिक संवेदनशीलता और सहनशीलता दिखाने की जरूरत है। इससे उनकी गिरती प्रतिष्ठा और जन विश्वास की फिर से बहाली ही नहीं होगी बल्कि यह स्वस्थ प्रदेश, स्वस्थ समाज और स्वस्थ लोकतंत्र की दिशा में एक सकारात्मक और निर्णयात्मक कदम साबित होगा।




1 comment:

  1. सर चोर चोर मौसेरे भाई......ये भारत है यहाँ कोई राजनितिक दल कभी कोई मिसाल नहीं प्रस्तुत करेगा !!!

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