Monday, 8 September 2014

Judge becomes Governor

न्यायमूर्ति बने राज्यपाल
       केरल में राज्यपाल पद पर पूर्व प्रधान न्यायाधीष पी. सताषिवम की नियुक्ति तकनीकी तौर पर यद्यपि विधि और संविधान के दायरे में है किन्तु फिर भी कई सारे सवाल खड़े होते हैं। आखिर क्यों सर्वोच्च और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीषों को ’कूलिंग आॅफ पीरियड’ के बिना ऐसे पदों पर नियुक्त किया जाता है? और क्यों नियुक्ति में आवष्यक और अपेक्षित खुलेपन, पारदर्षिता और प्रषासनिक षुचिता का अनुपालन नहीं किया गया? हालांकि यह कोई पहली बार नही है जब ऐसे पदों पर सेवानिवृŸा न्यायाधीष, नौकरषाह और सेना के उच्चाधिकारी नियुक्त होते रहे हैं। लेकिन जिस सरकार को ईमानदारी के उच्च मानदंड तय करने है कम से कम उससे ऐसी अपेक्षा नही की जा सकती। अब तक जो कुछ होता आया है उससे कुछ अलग कर दिखाने की मोदी सरकार की प्रतिबद्धता पर इससे प्रष्नचिन्ह लगता है। स्वयं प्रधानमंत्री मोदी ने अपने सार्वजनिक जीवन में ईमानदारी और नैतिकता के जिन मानदंडो को अब तक बनाये रखा है, राज्यपाल की इस नियुक्ति से उस पर निष्चित तौर पर असर पड़ रहा है क्योंकि ऐसा संदेष जा रहा है कि अपने एक वरिश्ठ कैबिनेट सहयोगी को मुकदमें में राहत पहुँचाने के लिए न्यायाधीष सदाषिवम को राज्यपाल पद देकर उपकृत किया गया है। यह गलत और खतरनाक परम्परा है।  
       यदि सेवाकाल के अन्तिम कार्यदिवसों पर न्यायाधीष सरकार के प्रति इस उम्मीद में नरम पड़ने लगेंगे कि वे इसके बाद महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्ति पा सकेंगे तो न्यायपालिक का नीर-क्षीर विवेक कहाँ जायेगा? जहाँ तक कांग्रेस का सवाल है इन मामलों में उसका अतीत इतना दागदार रहा है और इस प्रकार की नियुक्ति की ऐसे न जाने कितने उदाहरण हैं जिससे इस किताब के पन्ने भी कम पड़ जायेंगे, इसलिए उसके द्वारा विरोध करने का कोई नैतिक और विधिक बल भी नही है लेकिन मोदी सरकार के लिए अवष्य यह चिन्ता का विशय होना चाहिए कि न्यायपालिका की निश्पक्षता और स्वतंत्रता बनाये रखते हुए प्रषासनिक नियुक्ति के इस तरह के मामलों में उच्च आदर्ष और मानदंड स्थापित करे और यथास्थिति के बाहर निकले।
       राष्ट्रीय विकास परिशद की बैठक में सभी राजनीतिक दलों के राज्यों के मुख्यमंत्रियों के बीच पहले भी यह सहमति बन चुकी है कि राज्यपाल की नियुक्ति कैसे की जाये। सरकारिया आयोग द्वारा भी इस विशय में स्पश्ट और महत्वपूर्ण संस्तुतियां की गयी थी किन्तु जिस प्रकार से राज्यपालों की नियुक्तियां होती रही हैं और उनकी कार्य-भूमिका कई बार संदिग्ध और विवादों से घिर गयी उसकी बानगी आजाद के ठीक बाद से ही देखी जा सकती है। 1952 में तत्कालीन मद्रास के राज्यपाल श्री प्रकाष ने चक्रवर्ती राजगोपालाचारी को सरकार बनाने का न्यौता दिया जबकि विधानसभा में कांग्रेस को बहुमत नही था वहीं 1959 में केरल में ई.एम.एस. नम्बूदरीपाद की साम्यवादी सरकार को राज्यपाल की रिपोर्ट पर बर्खास्त कर दिया गया जबकि विधानसभा में उनको बहुमत प्राप्त था। उसके बाद से राज्यपाल रोमेष भंडारी (उŸार प्रदेष), सिप्ते रजी (झारखंड), बूटा सिंह (बिहार) और एस सी जमीर (गोवा) ऐसे अनेक  उदाहरण हैं जिन्होंने इस संवैधानिक पद की गरिमा को धूमिल किया है।
इसमें संदेह नही है कि विधि और संविधान की जानकारी और इस विशय का पर्याप्त अनुभव रखने वाले सेवा निवृŸिा न्यायाधीषों को राज्यपाल जैसे पद पर नियुक्त करने से उनकी विषेशज्ञता का लाभ लिया जा सकता है किन्तु यह अवष्य देखना होगा कि ऐसे न्यायाधीषों को सेवानिवृŸिा के 3 से 5 वर्श बाद ही ऐसे पदों पर नियुक्त किया जाये ताकि उन पर सेवाकाल के अंतिम दिनों में सŸाा प्रतिश्ठान के प्रति झुकने का आरोप भी न लग सके और सरकार के कार्याें में सिर्फ ईमानदारी होनी ही नही चाहिए बल्कि यह दिखनी भी चाहिए।
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