Thursday, 7 May 2015

My New Article न्यायिक नियुक्ति आयोग का विवाद


    पिछले दिनों भारत के प्रधान न्यायाधीष ने उस बैठक में जाने से इन्कार कर दिया जो न्यायिक नियुक्ति आयोग के सदस्यों के चयन के लिए बुलायी गयी थी जिसमें प्रधानमंत्री सहित नेता विपक्ष / सबसे बड़े विपक्षी दल एवं प्रधान न्यायाधीष को उन दो ख्यातिप्राप्त व्यक्तियों का चयन करना था जो इस आयोग के सदस्य होंगेे। प्रधान न्यायाधीष ने इस बैठक में भाग लेने से यह कहते हुए मना कर दिया कि जब तक न्यायिक नियुक्ति आयोग पर संविधान पीठ का निर्णय नहीं आ जाता, वे उस चयन समिति में कैसे भाग ले सकते हैं जो आयोग के गठन और संरचना का हिस्सा है। उनके इस एक निर्णय से कई समस्यायें पैदा हो गयी जैसे कि- 1. क्या जब तक निर्णय नहीं आ जाता, न्यायाधीषों की नियुक्ति रूकी रहेगी? 2. क्या इससे सर्वोच्च और उच्च न्यायालय में लंबित मुकदमों का कार्यबोझ और नहीं बढ़ जाएगा? 3. क्या इससे वादकारियों का हित प्रभावित नहीं होगा? 4. क्या कोई निष्चित समय-सीमा तय है जिसके भीतर संविधान पीठ अपना निर्णय दे देगी? 5. क्या इससे एक अनावष्यक संवैधानिक विवाद नहीं पैदा हो गया जिससे बचा जा सकता था?
 न्याय एक सर्वोच्च सामाजिक और व्यक्तिगत अभिलाशा है। विलंब से किया गया न्याय, अन्याय ही है। अतीत में ऐसे अनेक उदाहरण है जब न्यायालय ने पारित अधिनियमों और संवैधानिक संषोधनों को निरस्त किया है। इसलिए इसमें ऐसी कोई नई बात नही है कि यदि जब तक वर्तमान न्यायिक नियुक्ति आयोग को अवैध या निरस्त घोशित नहीं कर दिया जाता, न्यायिक नियुक्ति की प्रक्रिया चलती रहती। स्वयं प्रधान न्यायाधीष ने संविधान के अनुपालन की षपथ ली हुई है अतः जिस संवैधानिक प्रावधानों और प्रक्रियाओं के अनुसार संसद द्वारा पारित अधिनियम के द्वारा न्यायिक नियुक्ति आयोग का गठन किया गया है और उसमें सदस्यों के चयन की जो प्रक्रिया दी गयी है वह तब तक विधिमान्य और संवैधानिक है जब तक सर्वोच्च न्यायालय द्वारा उसे विधिषून्य घोशित नहीं कर दिया जाता। अतः उक्त बैठक या इसकी प्रक्रिया से अपने को अलग रखना संवैधानिक या विधिसम्मत नहीं माना जा सकता। यदि संसद को विधायन का अधिकार है तो निष्चित रूप से विधि के निवर्चन का अधिकार न्यायपालिका को है। एडवोकेट आॅन रिकार्ड बनाम भारत संघ, 1994 के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था श्बवदेजपजनजपवद पे ूींज जीम रनकहमे ेंल पज पेण्श् अर्थात् संविधान वह है जैसा कि न्यायाधीष कहें। यह उक्ति भारतीय प्रसंग संदर्भ पूर्णतया स्वीकार्य और सत्य है किन्तु न्यायाधीषों की नियुक्ति में विलंब अथवा अग्रिम आदेषों तक रोक लगने से या न्यायिक नियुक्ति की प्रक्रिया अवरूद्ध हो जाने से देष की व्यापक न्यायिक क्षति ही होगी। यदि भविश्य में संविधान पीठ द्वारा न्यायिक नियुक्ति आयोग को और संबंधित संषोधन अधिनियम को विधिषून्यघोशित कर भी दिया जाता है तो आगे से न्यायालय के निर्देषानुसार ही नियुक्ति प्रक्रिया जारी रखी जा सकती है किन्तु वर्तमान में नियुक्ति प्रक्रिया को अवरूद्ध करना न्यायोचित नहीं है। यदि संविधान पीठ द्वारा यह निर्णय आता है कि न्यायिक नियुक्ति आयोग, विधि और संविधान सम्मत है तो तब तक जितने अमूल्य समय की क्षति हो चुकी होगी, उसकी भरपाई कैसे की जा सकेगी? यद्यपि यह प्रधान न्यायाधीष का व्यक्तिगत निर्णय है कि वे इस पर पुनर्विचार करें अथवा नहीं किन्तु लोकानुग्रह की आकांक्षा से यही अभिप्रेरित है कि वे ऐसा करें।
डाॅ0 प्रत्यूश मणि त्रिपाठी,
निदेषक, वैद्स आईसीएस लखनऊ

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