मैगी और खाद्य सुरक्षा
अभी हाल ही में जिस प्रकार बहुराश्ट्रीय कंपनी नेस्ले के अतिलोकप्रिय खाद्य-उत्पाद मैगी नूडल्स पर प्रतिबन्ध का मामला सामने आया उससे कई तरह के मुद्दें भी उठे हैं, मिसाल के तौर पर- जब तक इसकी षिकायत लिखित रूप से खाद्य प्रषासन से जुड़े प्राधिकारियों तक नहीं की गयी, यह उत्पाद भारत में कैसे बनता और बिकता रहा ? क्यों इसकी जाँच पहले नहीं की गयी कि यह भारतीय स्वास्थ्य मानकों के अनुरूप है अथवा नहीं? क्या ऐसी कोई व्यवस्था पहले से ही नहीं होनी चाहिए कि यदि कोई विदेषी उत्पाद भारतीय खाद्य बाजार में उतारा जाता है तो पहले ही स्वास्थ्य मानकों के आधार पर उसका पूर्ण परीक्षण हो ? यदि ऐसी कोई व्यवस्था है तो फिर मैगी बाजार में बिकती कैसे रही ? क्या अन्य खाद्य और पेय पदार्थ जैसे कोल्ड ड्रिंक्स, पिज्जा, कार्नफ्लेक्स, षक्तिवर्धक दवाएं, टाॅनिक इत्यादि जो भारतीय बाजारों में बहुत आसानी से उपलब्ध है उसकी ऐसी कोई नियमित जाँच की जाती है अथवा नहीं ? सिर्फ विदेषी ही नहीं, भारत में फल, सब्जी, दूध, मिठाईयाँ, चाट-गोलगप्पें इत्यादि जो सड़क के किनारों पर बिकते हैं और हम सभी लोग उन्हें बड़े चाव और षौक के साथ खाते हैं, उनमें आये दिन दूशित पानी, रसायन, आॅक्सीटोसिन, विशैले पदार्थ व अन्य प्रतिबन्धित और स्वास्थ्य के प्रतिकूल मिलावट के मामलें रोज के अखबारों में छपते रहते हैं। षायद ही हममें से कोई ऐसा हो जो ऐसे दूशित और अपकृश्ट खाद्य पदार्थाें को खाकर कभी किसी रोग से पीडि़त न हुआ हो।
मैगी प्रकरण कोई पहला अवसर नहीं है जिसने हमारी लचर खाद्य सुरक्षा और बेहाल जन-स्वास्थ्य प्रणाली की ओर ध्यान खींचा हो। दूध, दही, घी, तेल, खोआ और रोजमर्रा की न जाने कितनी ही खाने-पीने की चीजें जो हम इस्तेमाल करते हैं, वो कहीं से भी खाद्य सुरक्षा से जुड़े मानकों पर खरे नहीं उतरते। खाने-पीने में मिलावट को हम आज भी गंभीर अपराध नहीं मानते जबकि सच्चाई यह है कि यह देष के स्वास्थ्य सुरक्षा, पोशण और षारीरिक-मानसिक विकास के लिए सबसे बड़ा खतरा है। आज तक किसी भी सरकार ने इस पर कोई कठोर कदम नहीं उठाया और न ही कड़े कानून बनायें जबकि किसी भी व्यक्ति के आमदनी का एक बड़ा हिस्सा उसकी बीमारियों और ऐसे पदार्थों से उपजी स्वास्थ्य समस्याओं को दूर करने में ही खर्च हो जाता है। यह किसी भी सरकार के लिए प्रथम और प्राथमिक विशय होना चाहिए कि अपने देष के जलवायु, पर्यावरण और सामाजिक-आर्थिक जरूरतों को ध्यान में रखते हुए खाद्य सुरक्षा पर एक नियामिकीय आयोग तथा कठोर कानून बनाया जाए जो मिलावटखोरों को जघन्य अपराधियों की श्रेणी में दंड का प्रावधान करता हो। यूरोप तथा अमेरिका में खाने-पीने के सामान और दवाईयों इत्यादि पर कठोर स्वास्थ्य सुरक्षा के जुड़े मानकों का अनुपालन किया जाता है लेकिन हमारे यहाँ इसका दिखावा अधिक है और जो भी थोड़ी-बहुत कानूनी व्यवस्था की गयी है वो सरकार और प्रषासन के संबंधित विभागों की भ्रश्टाचार की भेंट चढ़ जाता है। मैगी हमें यह एक अन्तिम अवसर दे रही है कि सरकार और प्रषासन जन-स्वास्थ्य और देष के भविश्य से जुड़े इस महŸवपूर्ण, संवेदनषील और मानवीय विशय पर प्रभावी और नियमित कार्यवाही करे।
डाॅ0 प्रत्यूशमणि त्रिपाठी, निदेषक, वैद्स आईसीएस लखनऊ
अभी हाल ही में जिस प्रकार बहुराश्ट्रीय कंपनी नेस्ले के अतिलोकप्रिय खाद्य-उत्पाद मैगी नूडल्स पर प्रतिबन्ध का मामला सामने आया उससे कई तरह के मुद्दें भी उठे हैं, मिसाल के तौर पर- जब तक इसकी षिकायत लिखित रूप से खाद्य प्रषासन से जुड़े प्राधिकारियों तक नहीं की गयी, यह उत्पाद भारत में कैसे बनता और बिकता रहा ? क्यों इसकी जाँच पहले नहीं की गयी कि यह भारतीय स्वास्थ्य मानकों के अनुरूप है अथवा नहीं? क्या ऐसी कोई व्यवस्था पहले से ही नहीं होनी चाहिए कि यदि कोई विदेषी उत्पाद भारतीय खाद्य बाजार में उतारा जाता है तो पहले ही स्वास्थ्य मानकों के आधार पर उसका पूर्ण परीक्षण हो ? यदि ऐसी कोई व्यवस्था है तो फिर मैगी बाजार में बिकती कैसे रही ? क्या अन्य खाद्य और पेय पदार्थ जैसे कोल्ड ड्रिंक्स, पिज्जा, कार्नफ्लेक्स, षक्तिवर्धक दवाएं, टाॅनिक इत्यादि जो भारतीय बाजारों में बहुत आसानी से उपलब्ध है उसकी ऐसी कोई नियमित जाँच की जाती है अथवा नहीं ? सिर्फ विदेषी ही नहीं, भारत में फल, सब्जी, दूध, मिठाईयाँ, चाट-गोलगप्पें इत्यादि जो सड़क के किनारों पर बिकते हैं और हम सभी लोग उन्हें बड़े चाव और षौक के साथ खाते हैं, उनमें आये दिन दूशित पानी, रसायन, आॅक्सीटोसिन, विशैले पदार्थ व अन्य प्रतिबन्धित और स्वास्थ्य के प्रतिकूल मिलावट के मामलें रोज के अखबारों में छपते रहते हैं। षायद ही हममें से कोई ऐसा हो जो ऐसे दूशित और अपकृश्ट खाद्य पदार्थाें को खाकर कभी किसी रोग से पीडि़त न हुआ हो।
मैगी प्रकरण कोई पहला अवसर नहीं है जिसने हमारी लचर खाद्य सुरक्षा और बेहाल जन-स्वास्थ्य प्रणाली की ओर ध्यान खींचा हो। दूध, दही, घी, तेल, खोआ और रोजमर्रा की न जाने कितनी ही खाने-पीने की चीजें जो हम इस्तेमाल करते हैं, वो कहीं से भी खाद्य सुरक्षा से जुड़े मानकों पर खरे नहीं उतरते। खाने-पीने में मिलावट को हम आज भी गंभीर अपराध नहीं मानते जबकि सच्चाई यह है कि यह देष के स्वास्थ्य सुरक्षा, पोशण और षारीरिक-मानसिक विकास के लिए सबसे बड़ा खतरा है। आज तक किसी भी सरकार ने इस पर कोई कठोर कदम नहीं उठाया और न ही कड़े कानून बनायें जबकि किसी भी व्यक्ति के आमदनी का एक बड़ा हिस्सा उसकी बीमारियों और ऐसे पदार्थों से उपजी स्वास्थ्य समस्याओं को दूर करने में ही खर्च हो जाता है। यह किसी भी सरकार के लिए प्रथम और प्राथमिक विशय होना चाहिए कि अपने देष के जलवायु, पर्यावरण और सामाजिक-आर्थिक जरूरतों को ध्यान में रखते हुए खाद्य सुरक्षा पर एक नियामिकीय आयोग तथा कठोर कानून बनाया जाए जो मिलावटखोरों को जघन्य अपराधियों की श्रेणी में दंड का प्रावधान करता हो। यूरोप तथा अमेरिका में खाने-पीने के सामान और दवाईयों इत्यादि पर कठोर स्वास्थ्य सुरक्षा के जुड़े मानकों का अनुपालन किया जाता है लेकिन हमारे यहाँ इसका दिखावा अधिक है और जो भी थोड़ी-बहुत कानूनी व्यवस्था की गयी है वो सरकार और प्रषासन के संबंधित विभागों की भ्रश्टाचार की भेंट चढ़ जाता है। मैगी हमें यह एक अन्तिम अवसर दे रही है कि सरकार और प्रषासन जन-स्वास्थ्य और देष के भविश्य से जुड़े इस महŸवपूर्ण, संवेदनषील और मानवीय विशय पर प्रभावी और नियमित कार्यवाही करे।
डाॅ0 प्रत्यूशमणि त्रिपाठी, निदेषक, वैद्स आईसीएस लखनऊ
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