इस शाहखर्ची को भी देखिये मनमोहन जी
सरकार राजकीय कोष में कमी का रोना रोते हुए लगातार टैक्स का बोझ बढाने
और सब्सिडी हटाने में में लगी है। पिछले तीन चार सालों में बढ़ते टैक्स और
जबरदस्त महंगाई ने आज जनता का जीवन दुश्वार कर दिया है। क्रूर मजाक ये कि
टैक्स दाताओं से हासिल धन का एक बड़ा हिस्सा राजशाही और नौकरशाही के
ऐशो-आराम, पार्टियों, विदेश यात्राओं समेत अनाप-शनाप खर्चों पर बहा दिया
जाता है। सवाल पूछा जाना चाहिए कि ये लोकतंत्र है या लूटतंत्र?
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह नसीहत देते हैं कि पैसा पेड़ पर नहीं उगा करता।
क्या ये नसीहत वो सरकार में मौजूदा साथियों, मातहतों और सूबे के हुक्मरानों
को देना चाहेंगे? किसी भी पारदर्शी, ईमानदार और सुशासित तंत्र में वाकई
सब्सिडी की जरूरत खत्म हो जाती है, क्योंकि उसके कामकाज से देश का हर वर्ग
फलता-फूलता है, सबका विकास होता है। लेकिन मौजूदा हाल में तो ऐसा नहीं लगता
बल्कि विकास का असली फायदा तेजी से कुछ मुट्ठी भर लोगों तक सिमटता जा रहा
है।
कुछ अजीब विरोधाभास दिखते हैं-प्रधानमंत्री के सौजन्य से दी जाने वाली
पार्टियों पर हर थाली का रेट करीब साढ़े सात हजार रुपये आता है। उनके
मंत्रिमंडल के सदस्यों, आला अफसरानों के यहां तकरीबन रोज ही पार्टियां होती
हैं, खर्च निकलता है सरकारी खजाने से। लोकसभा और राज्यसभा के अध्यक्ष हर
हफ्ते आलीशान दावतों का आयोजन करते हैं। इस सिरे को बढ़ाकर अगर राज्यों की
ओर ले जाएं, तो वहां भी मुख्यमंत्री, राज्यपाल, मंत्री , विधायक, आला अफसर
सरकारी दावतों की मेजबानी में पीछे नहीं रहते। करोड़ों रुपये के फूल रोज
सरकारी कार्यालयों में सजाने के लिए खरीदे जाते हैं। करोड़ो रुपये रोज
पेट्रोल में बहाये जाते हैं। करोड़ों रुपये रोज तमाम सैर-सपाटों और हवाई
यात्राओं में स्वाहा होते हैं। सरकारी बंगलों और आफिसों के सौंदर्यीकरण पर
तो खर्च के बारे में पूछिये ही मत। देश में ऐसे सरकारी अमलों की भी कमी
नहीं, जो समय के साथ अप्रासंगिक हो चुके हैं, जिनके पास कोई काम नहीं लेकिन
हर महीने का करोड़ों का बजट वो फूंक डालते हैं। देश की बदहाली पर सरकारी
मशीनरी की संवेदनहीनता हैरतअंगेज है।
मौजूदा योजना आयोग के कार्यकाल में निर्धनता रेखा का आंकलन करने के
लिए तीन समितियां चर्चा में रहीं। ये समितियां हैं-तेंदुलकर समिति, सक्सेना
समिति और योजना आयोग की आंतरिक आंकलन समिति। देश में गरीबी की स्थिति,
मात्रा और प्रतिशत को लेकर तीनों के अलग निष्कर्ष और आंकड़े हैं। सर्वोच्च
न्यायालय में योजना आयोग ने हलफनामा दायर करके कहा ग्रामीण क्षेत्रों में
२४ रुपये प्रतिदिन और शहरी क्षेत्रों में ३२ रुपये रोज कमाने वाला व्यक्ति
गरीब नहीं है। यानि वो गरीबी रेखा से ऊपर है। ये भारतीय नागरिकों के साथ
अशोभनीय मजाक नहीं तो और क्या है? ये सोच वाकई समझ से परे है। ये वही योजना
आयोग है, जिसने अपने आफिस के टायलेटों के निर्माण पर प्रति टायलेट २२ से
२५ लाख रुपयेे खर्च किये।
है न अजीब कि एक तरफ करोड़ों-अरबों रुपये यूं बहाये जाएं और दूसरी ओर
एलपीजी सिलेंडरों और किसानों के काम आने वाले डीजल पर नसीहत देते हुए
सब्सिडी हटाई जाए। अगर राजकीय कोष को मजबूत करने के लिए सब्सिडी हटाना
जरूरी है तो शायद उससे ज्यादा जरूरत सार्वजनिक जीवन में वैसा आचरण करने की
जो गांधी जी जैसे महापुरुष किया करते थे। प्रधानमंत्री की आखिर कौन सी ऐसी
मजबूरी है कि वो इन अपव्ययों को रोकने की बजाये बार बार जनता की जेब पर ही
डाका डालते हैं, समय आ गया है कि सरकारी प्रश्रय में होने वाले इन अपव्ययों
को न केवल रोका जाये बल्कि इन्हें सार्वजनिक भी किया जाये।
ये भी शोध का विषय है कि सरकार द्वारा आम आदमी पर खर्च की जाने वाली
सुविधाओं और योजनाओं की रकम और सरकारी अपव्ययों का अनुपात क्या है? शायद ही
किसी अन्य देश में जनता के पैसे को इस तरह उड़ाया जाता हो। दुख की बात ये
है कि ये प्रवृत्ति कम होने की बजाये बढती जा रही है। ऐसे भोजों और
शाहखर्ची में कोई भी सियासी दल पीछे नहीं। कोई सियासी दल कभी ये सवाल नहीं
उठाता कि ६०-७० रुपये प्रति लीटर पेट्रोल, १००० रुपये के सिलेंडर में आधी
से ज्यादा रकम टैक्स की होती है, जो तेल कंपनियां हमेशा घाटे का रोना रोती
हैं, उनके न केवल संस्थागत खर्च बेहिसाब हैं बल्कि उनके ज्यादातर आयोजन
पांच सितारा और सात सितारा होटलों में होते हैं।
हाल ही में यूपी के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने बेरोजगारी भत्ता
बांटने के लिए एक आयोजन किया, जिसमें बेरोजगारों को एक-एक हजार रुपये बांटे
गये। बताते हैं कि जितनी रकम इस आयोजन में बेरोजगारों को बांटने में खर्च
की गई, उससे दोगुनी इस आयोजन पर हो गई।
जिस देश की ७० फीसदी जनता अब भी गरीबी का जीवन जी रही हो, जहां अब भी
बड़े पैमाने पर लोगों के घरों में महज एक समय का चूल्हा जलना मुश्किल होता
हो, वहां नेताओं और नौकरशाहों का ये आचरण अशोभनीय है। सियासी सांठ-गांठ के
लिए ये शाहखर्ची के लिए ये देश सक्षम नहीं। कारपोरेट भी इस मामले में पीछे
नहीं। अपनी शाही लाइफस्टाइल और पार्टियों में वह करोड़ों अरबों बहा देते
हैं लेकिन इनमें से कई के संस्थानों में उनके कर्मचारियों को कई महीन वेतन
नहीं मिलता। प्रधानमंत्री को सचेत हो जाना चाहिए कहीं उनकी तुलना भी उस
नीरो से न की जाने लगे, जो जलते हुए रोम की चिता के बीच आराम से बांसुरी
बजा रहा था।
जो लोग पिछले ६ दशको में विकास और प्रगति के नाम पर होने वाले छद्दम तमाशे से परचित है शायद इन निर्णयों से कतई उत्साहित नहीं होगें। पिछले २ दशको में जो नीतियाँ लागू की गयी उनसे केवल छोटा वर्ग ही लाभान्वित हो पाया है।
ReplyDeleteआजादी के बाद पहली बार हमें अपना संविधान तो मिला, लेकिन संविधान का संचालन उसी पुरानी और सड़ी गली व्यवस्था के पोषक लोगों के ही हाथ में रहा। हमनें अच्छे- अच्छे नियम-कानून और व्यवस्थाएँ बनाने पर तो जोर दिया, लेकिन इनको लागू करने वाले सच्चे, समर्पित और निष्ठावान लोगों के निर्माण को बिलकुल भुला दिया जिसका दुष्परिणाम यह हुआ कि सरकार, प्रशासन और व्यवस्था का संचालन करने वाले लोगों के दिलोदिमाग में वे सब बातें यथावत स्थापित रही जो समाज को जाति, वर्ण, धर्म और अन्य अनेक हिस्सों में हजारों सालों से बांटती रही। इन्हीं कटुताओं को लेकर रुग्ण मानसिकता के पूर्वाग्रही लोगों द्वारा अपने चहेतों को शासक और प्रशासक बनाया जाने लगा। जो स्वनिर्मित नीतियां अपने मातहतों तथा देश के लोगों पर थोपते रहे और आज भी थोप रहे है।
एक ओर तो प्रशासन पर इस प्रकार के लोगों का कब्जा होता चला गया और दूसरी ओर राजनीतिक लोगों में आजादी के आन्दोलन के समय के जज्बात् और भावनाएँ समाप्त होती गयी। जिन लोगों ने अंग्रेजों की मुखबिरी की- वे, उनके साथी और उनके अनुयाई संसद और सत्ता तक पहुँच स्थापित करने में सक्षम हो गये। जिनका भारत, भारतीयता और मूल भारतीय लोगों के उत्थान से कोई वास्ता नहीं रहा, ऐसे लोगों ने प्रशासन में सुधार लाने के बजाय खुद को ही भ्रष्टाचार में आकण्ठ डूबे अफसरों को साथ मिला लिया और विनिवेश के नाम पर देश को बेचना शुरू कर दिया।
पिछले ६ दसको में देश बदला है पर आम आदमी की जिंदगी और मुश्किल हुई है। जो हजारो टन अनाज सड़ रहा है वो ऐसे ही सड़ता रहेगा। गरीब चाहे भूखा मरे पर स्टाइल मारने का हक तो उसे भी है…..उसके झोपड़ों तक बिजली, पीने का साफ पानी नहीं पहुंचा पर टीवी पहुंचा दी गई, ताकि मूर्खों के स्वप्रलोक में वह भी मगन रहे, राजनीति का एक सिद्धांत है है…अगर जनता को तुम रोटी नहीं दे सकते तो उन्हें सर्कस दिखाओ !
देश के गावों में विचरने वाली जनता को आखिर वास्तविक रूप में चाहिए क्या ? …..यह जानने की फुर्सत किसी को नहीं है……………..वाह रे मेरे देश के कर्णधारो वाह……….अंत में मैं यही कहना चाहता हूँ कि- देश को अपनी विकास अवधारणा पर पुनर्विचार करना होगा और तय करना होगा की एक फीसदी लोगों की विलासता और वोट बैंक जरुरी है या अस्सी फीसदी लोगों की बुनयादी सुविधाएं!!!!