दागदार होते खेल नायक और समाज पर असर
एक टीवी चैनल के हालिया स्टिंग ने फिर साबित किया कि क्रिकेट जैसे खेल
में फिक्सिंग की आंच केवल खिलाडिय़ों तक ही नहीं बल्कि अंपायरों तक पहुंच
गई है। श्रीलंका, पाकिस्तान और बांग्लादेश के अंपायरों ने छिपे हुए कैमरे
के सामने स्वीकार किया कि उन्हें कुछ गलत फैसलों की एवज में पैसा लेने से
इनकार नहीं। इस रहस्योदघाटन ने खेलों की नैतिकता पर फिर सवाल खड़े किये हैं
कि जो खेल हम मैदान में देखते हैं वो वाकई कितने स्वस्थ होते हैं। क्रिकेट
पर हाल के बरसों में फिक्सिंग के न केवल कई बड़े मामले उजागर हुए हैं
बल्कि तमाम मैचों में खिलाडिय़ों के प्रदर्शन और अंपायरों के फैसलों पर सवाल
उठते रहे हैं।
मुझे याद आता है कि करीब एक दशक पहले फिक्सिंग के एक बड़े झकझोर देने
वाले मामले में दक्षिण अफ्रीका के लोकप्रिय क्रिकेटर हैंसी क्रोनिए का नाम
सामने आया था। किसी को ये विश्वास तक नहीं था कि हैंसी ऐसा कर सकते हैं। वह
उस दौर के बेेेहद सम्मानीय क्रिकेटर थे। प्रशंसकों से उन्हें बेपनाह प्यार
मिलता था। लोग उनकी लीडरशिप को एक उदाहरण के तौर पर पेश करते थे। जब ये
पता लगा कि वह क्रिकेट के भ्रष्टाचार में लिप्त हैं तो ये बहुत निराशा हुई।
ये खेल नायकों के पतन का आरंभ था। चूंकि खेल नायकों को हम देवताओं के सदृश
प्रतिष्ठित मानते हैं लिहाजा ये उस इमेज पर बहुत गहरा झटका था। ऐसी किसी
भी घटना का असर भले तुरंत नहीं दिखेे लेकिन इसका मनौवैज्ञानिक असर समाज पर
पड़ता है।
खेल जगत बेशक कुछ सालों पहले तक भ्रष्टाचार से अछूता लगता था। हालांकि
भ्रष्ट आचरण की व्यापकता हमेशा से रही है। हमारा कारपोरेट और राजनीति के
लोग हमेशा से इसमें आकंठ डूबे रहे हैं, लिहाजा पतन भी उतना व्यापक तरीके से
हो रहा है। ये व्यापक क्षरण समाज की गिरती स्थिति का भी प्रतीक है।
जब भी खेलों की बात होती है तो स्वस्थ स्पर्धा, स्वस्थ मनोरजंन, ऊर्जा
से खिलाड़ी और प्रतिभाओं की एक बेहतर तस्वीर दिमाग में उभरती है। सदियों
से खेलों की कल्पना कुछ ऐसी ही की गई है, बल्कि कल्पना क्यों कहें हमने कुछ
दशकों पहले तक खेलों को इसी तरह से देखा है। जब 19वीं सदी के आरंभ में
पियरे द कुबर्तिन ने दोबारा ओलंपिक खेलों को शुरू करने का सपना देखा तो
उनके दिमाग में स्वस्थ खेलों के जरिए अतरराष्ट्रीय जगत में एक स्वस्थ संदेश
देकर समाज को सकारात्मक दिशा में आगे बढाना था। ये वो दौर था जब
व्यावसायिकता को खेलों से दूर रखने की भरपूर कोशिश की गई, क्योंकि कुबर्तिन
ने तभी जान लिया था अगर खेलों में पैसा आ गया तो अपने साथ व्यावसायिकता और
धन से जुड़ी कुरुपताएं और अनैतिक लिप्साएं भी लेकर आयेगा। इसलिए ओलंपिक
खेलों के शुरू होने के बाद खिलाडिय़ों पर कड़ी नजर रखी जाती थी कि वो अपने
खेल हूनर और खेल प्रतिभा को पैसे या बाजार के तराजू पर नहीं तौलें। जब भी
कोई खिलाड़ी कोई ऐसा फायदा लेता पाया गया तुरंत उसका पदक छीना गया या उसे
प्रतिबंधित कर दिया गया। लेकिन साठ के दशक के आते आते ओलंपिक खेल आंदोलन
खुद पैसे और बाजार के कुचक्र में कैद हो गये। कहना चाहिए इसका असर खेलों और
खिलाडिय़ों पर जो पड़ा वो अब लगातार नकारात्मक तौर पर सामने आता दिख रहा
है। अब खेलों की स्वस्थ स्पर्धा और ईमानदार आचरण की बात तो सिरे से गायब हो
गई है बल्कि खेल और खिलाड़ी ड्रग, सेक्स और धन की लिप्साओं में इतने धंस
गये हैं कि खेलों की पूरी दुनिया में ही उसकी विद्रूप छाया पडऩे लगी है।
केवल क्रिकेट ही नहीं फुटबाल, बास्केटबाल, ओलंपिक और दूसरे तमाम खेलों
में फिक्सिंग, सट्टेबाजी, प्रतिबंधित दवाओं का सेवन सामान्य बात बन गई है।
दिक्कत ये है कि इससे जो अविश्वास का एक माहौल पनपा है, उसने नई पीढ़ी,
समाज, आचरण, नैतिकता सारे ही पहलुओं को खासा नुकसान पहुंचाया है।
मुझको याद है कि 19७7 के सियोल ओलंपिक खेलों में सौ मीटर के स्वर्ण
पदक विजेता बेन जानसन को प्रतिबंधित दवा के सेवन का दोषी पाया गया था। इस
रहस्योदघाटन से पूरी दुनिया हिल गई थी। इसने सही मायनों में खेलों में
विश्वास की चूलें हिला दी थीं। हालांकि इससे पहले भी तमाम अन्य खेलों में
भी चीटिंग की कई घटनाएं हो चुकी थीं लेकिन इसने अहसास दिलाया कि अब खेल के
क्षेत्र में अंधकार की एक दुनिया पनप चुकी है। मैं फिर वही बात दोहराउंगा
कि खेल नायक जब ऐसा करते हैं तो इसका गलत तरीके से फायदा गलत तत्व उठाते
हैं। वैसे दीगर बात यही है कि खेलों में व्यावसायिकता की शुरुआत और बाजार
के दबावों ने भी गलत रास्तों की ओर मोड़ा है। ये सच है कि पैसा जितना वैभव
और समृद्धि लेकर आता है, उतनी ही बुराइयां भी साथ लाता है।
क्रिकेट चूंंंकि हमारे भारतीय उपमहाद्वीप का सबसे लोकप्रिय खेल है,
लिहाजा इसमें इस तरह की घटनाएं हमारे अविश्वास को और बढाती हैं। टीवी चैनल
के स्टिंग की ताजा कड़ी ये भी बताती है कि केवल क्रिकेटर ही नहीं अंपायर भी
इसकी गिरफ्त में हैं। अगर किसी खेल में लगातार ऐसा हो रहा हो तो ये भी
लगता है कि इसे संचालित करने वाली संस्थाएं भी कहीं न कहीं अपनी भूमिका में
खरी नहीं उतर रही हैं। अब आशंका ये है कि खेल और खिलाडिय़ों की ये अपयश
गाथाएं हमें समाज की एक और स्वस्थ परंपरा से महरूम न कर दें।
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