Sunday, 10 March 2013

बजट के साथ इसका असरदार क्रियान्वयन भी जरूरी


बजट महज आंकड़ों का लेखाजोखा नहीं बल्कि सामाजिक-आर्थिक विकास का उपकरण भी होता है। 1860 में तत्कालीन वायसराय  के कार्यकारी  अधिकारी  जेम्स विल्सन ने भारत में पहला बजट बनाया था..तब से लेकर अब तक भारत में 80 से अधिक बजट पेश किये जा चुके हैं। पिछले 150 सालों में बजट की  प्रक्रिया भी कई बदलावों से गुजरी..ये पहले अंशकालिक हुआ करता था..फिर पूर्णकालिक बना। लेकिन देश के आजाद होने से लेकर अब तक  बजट आमतौर पर राजनीतिक घोषणापत्र ज्यादा रहा है, ये देश की जनाकांक्षाओं और अर्थव्यवस्था को जागृत करने वाला दस्तावेज नहीं बन सका। यद्यपि विकासशील देश के रूप में बजट राष्ट्र में संजीवनी का महत्व रखता है।  इस बार भी बजट पेश किये जाने से पहले इससे तमाम अपेक्षाएं थीं, साथ ही ये उम्मीद भी कि ये बजट गंभीर आर्थिक हिचकोले लेते हुए इस समय में ऐसा बजट होगा, जिससे देश के आर्थिक परिदृश्य में सुधार के दूरगामी परिणाम होंगे, लेकिन इस बजट ने निराश ज्यादा किया है। 
अगर बजट के आंकड़ों में नहीं जाएं और तथ्य, आधार और सैद्धांतिक चर्चा की कसौटियों पर बजट को कसें तो इससे ये उम्मीदें थीं......

1. इसके जरिए आर्थिक सुदृढता का प्रयास किया जायेगा
2. ये रोजगारपरक होगा, इससे ज्यादा रोजगार सृजित हो सकेंगे
3. ये बजट कुछ ऐसा होगा, जिससे बढ़ती  मुद्रास्फीति पर नियंत्रण हो सकेगा
4. उद्योग और आधारभूत ढांचे को प्रोत्साहित करने वाला होगा
5. भारत की शर्तों पर प्रत्यक्ष विदेशी निवेश यानि एफडीआई को  प्रोत्साहन देगा...

इसमें वित्तमंत्री ने दो संकेतों पर बेशक अमल किया। हो सकता है कि देखने में ये बजट  उम्मीदें जगाने वाला लगे लेकिन  इसके अधिकांश हिस्से में केवल प्रावधान ही ज्यादा किये गये हैं।  आर्थिक सुधारों के नाम पर राजनीतिक निहितार्थों की चाशनी में इसे परोसा गया है। मसलन इस बजट में जन कल्याणकारी योजनाओं पर बहुत जोर देने की बात कही गई है..मसलन  मनरेगा, अल्प संख्यक कल्याणकारी, अनुसूचित जाति और जनजाति को ज्यादा धन आवंटित बढ़ाने की  घोषणाएं की गई हैं, इसी तरह से कुछ और योजनाओं में लंबी चौड़ी घोषणाएं की गईं। यहां ये समझ लेना जरूरी है कि केवल ये सब कर देने भर से जनहितैषी बजट नहीं बन जाता। मूल समस्या तो इसके क्रियान्वयन की है। जब तक लक्षित वर्ग तक योजनाओं का लाभ पूरी तरीके से नहीं पहुंचे तो ऐसे बजट का क्या मतलब? बल्कि इनके मद में धन आवंटन बढाने से लूट-खसोट और भ्रष्टाचार को ही बढावा मिलेगा..लक्षित वर्ग का हाल वही का वही रहेगा। गौरतलब है कि हमारे पूर्व प्रधानमंत्री  स्वर्गीय राजीव गांधी, मौजूदा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कांग्रेस के युवा नेता राहुल गांधी भी स्वीकार कर चुके हैं कि तमाम योजनाओं  में लक्षित वर्ग तक पहुंचने वाले फायदों के तहत एक रुपये में महज दस पैसा ही वांछितों तक पहुंच पाता है।

ऐसे में बजट में लंबी चौड़ी घोषणाओं की बजाये जरूरत इनके क्रियान्वयन के लिए आर्थिक, प्रशासनिक, पुलिस सुधारों की है..और ये सुनिश्चित करने की है कि बजट का फायदा  वाकई लक्षित वर्ग तक हो और देश के विकास में साफ साफ नजर भी आये। हालत ये है कि देश की जनता को जन कल्याणकारी योजनाओं का लाभ कम मिल रहा है बल्कि धनराशि में लूट ज्यादा हो रही है, दुर्भाग्य से इसे बजट बनाये जाते समय ध्यान में नहीं रखा जाता। गौरतलब है कि अर्थव्यवस्था के लिए सुशासन बड़ी कुंजी है। वर्ष 2014 के चुनावों के पहले  अपेक्षा थी कि सरकार भ्रष्टाचार पर लगाम लगायेगी, महंगाई कम करेगी और सुशासन पर ध्यान देगी, लेकिन ऐसा दिख नहीं रहा। हाल ही में कैग की रिर्पोट के जरिए किसानों  को कर्ज माफी में बड़े घोटाले का एक अन्यमामला सामने आया है। कैग रिपोर्ट कह रही है कि इसमें करोड़ों-अरबों  की गड़बडिय़ां हुई हैं। इस स्कीम के तहत वितरित 52,500 करोड़ रुपयों में कम से कम 20 फीसदी राशि के इस्तेमाल को लेकर गंभीर सवाल उठाये गये हैं। 

अब जरूरत  दूरगामी सोच, कठोर वित्तीय नियंत्रण, सुशासन की है और यही सरकार का मूल कर्म और धर्म होना चाहिए। 

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