नि:संदेह राजनीति ही अर्थनीति को तय करती है। विशेषकर लोकतंत्र में ये अत्यंत आवश्यक हो जाता है किंतु जब वोटबैंक की राजनीति, बाजार और अर्थतंत्र को इस हद तक प्रभावित करने लगे कि सामान्य जनजीवन पर नकारात्मक प्रभाव हो और भुगतान संतुलन में संकट की स्थिति आ जाये तो ये आर्थिक नहीं बल्कि प्रशासनिक विफलता भी है। स्मरण हो कि 1989-90 में भारत के सामने जो आर्थिक संकट उत्पन्न हुआ था उसके लिए चंद्रशेखर सरकार को भारतीय रिजर्व बैंक में रखे सोने के भंडार को बैंक आफ इंग्लैंड में गिरवी रखना पड़ा था। इसके बाद अपमानजनक शर्तों पर इंटरनेशनल मानेटरी फंड से ऋण तो मिला लेकिन उसके बाद देश आर्थिक संकट की चुनौती से पार पाने में सफल भी रहा और उसने संभावनाओं के द्वार भी खोले।
24 जुलाई 1991 को नई आर्थिक और औद्योगिक नीति की घोषणा तत्कालीन वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने प्रधानमंत्री एन. नरसिम्हराव के नेतृत्व वाली सरकार के दौरान की किंतु दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति ये है कि वर्तमान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को जब सरकार का मुखिया बनने का अवसर वर्ष 2004 में हासिल हुआ तब से पीएम के तौर पर ये उनका दूसरा कार्यकाल है और अपने इन दो कार्यकालों में वह वित्तीय प्रशासक के रूप में काम करने में नाकाम रहे। उन्हें एक लंबा और सुनहरा अवसर हासिल हुआ लेकिन इसके बावजूद भारत की आर्थिक स्थिति गंभीर है और ये चिंता का विषय है।
एफआरबीएम अधिनियम के लक्ष्यों को प्राप्त नहीं किया जा सका है। राजकोषीय घाटा बेतहाशा बढ़ा। भ्रष्टाचार के अनेक मामले सामने आये। लोकलुभावन नीतियों परअनावश्यक और अत्यधिक धन खर्च किया गया और भारत को महज एक उपभोक्ता बाजार में बदल दिया गया। ये आर्थिक नहीं बल्कि राजनीतिक फैसला था, इसलिए सवाल ये है कि इस समस्या से दो चार कैसे किया जाये क्योंकि इसके लिए जितना जिम्मेदार केंद्र है उतना ही राज्यों का कुप्रबंधन जवाबदेह है। अगर समग्र प्रशासनिक आर्थिक सुधार लागू नहीं किये जाते तो भारत निश्चित रूप से गंभीर आर्थिक संकट की ओर तेजी से बढ़ रहा है।
मौजूदा आर्थिक स्थिति के चलते न केवल फिर से भुगतान संतुलन का संकट पैदा हो गया है बल्कि राजकोषीय प्रबंधन से जुड़ी समस्याएं भी सामने आई हैं और ये आर्थिक विफलता से कहीं ज्यादा राजनीतिक और प्रशासनिक विफलता का संकेत देती है।जब मवाद गहरे पैठा हो तो शल्यक्रिया करनी ही पड़ती है,तब छोटी मोटी औषधियों से काम नहीं चलता। आज भारत की भी इसी तरह की शल्यक्रिया करने की आवश्यकता है।
जिसके लिए पांच क्षेत्रों में गंभीर और कठोर कदम उठाने होंगे-
1. सामाजिक-आर्थिक अध:संरचना का विकास
2. लोकलुभावन और गैर जरूरी योजनाओं में कटौती
3. केंद्र और राज्य सरकार के बजट पर पर्याप्त और प्रभावी नियंत्रण
4. कर के दायरे में अधिकाधिक लोगों को लाना
5. नौकरशाही में सुधार और उसके आकार को दुरुस्त करना
ब्रिक्स, जी- 60 या इस प्रकार अनेक क्षेत्रीय मंचों में भारत की गौरवपूर्ण स्थिति लगातार महत्वहीन होती जायेगी। इसलिए ये कुछ करने का समय है न कि सिर्फ चेतने और चेतावनी देने का। जब तक ये कदम उठाये नहीं जाते, उभरती हुए भारतीय आर्थिक महाशक्ति का सपना दिवास्वप्र ही रह जायेगा।
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