साठ के दशक के उत्तरार्ध में चारू मजुमदार और अन्य साम्यवादी विचारकों
द्वारा नक्सलवाड़ी जैसे छोटे गांव में जिस वैचारिक क्रांति का बीजारोपण
किया गया था, अब वह आतंकवाद का विष वृक्ष बन गया है। समस्या ये है कि
विचारधारा को व्यवस्था के साथ जोड़ा गया है कि ये एक दूसरे के पर्याय हों
किंतु समस्या के अपने राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक आयाम हैं। अब ये भूमि
सुधारों और आदिवासी अधिकारों की समस्या नहीं बल्कि संविधान, राज व्यवस्था
और लोकतंत्र के लिए एक बड़ी चुनौती बन चुकी है। छत्तीसगढ़ के बस्तर इलाके में जिस तरह नक्सलियों ने
भीषण हमला करके राज्य के कांग्रेसी नेतृत्व का एक तरह से सफाया ही कर दिया,
उससे एक बार फिर भारतीय लोकतंत्र, संविधान और विधि व्यवस्था पर करारा
आघात लगा है।
2009-१0 में छत्तीसगढ़ में नक्सलियों ने अद्र्धसैन्य बलों के
जवानों का कत्लेआम किया था और उनकी गतिविधियां बड़े पैमाने पर देखी गईं
थीं। लेकिन पिछले एक -डेढ़ सालों से छत्तीसगढ़ में उनकी गतिविधियां शिथिल
पड़ी थीं। उसका कारण उनके खिलाफ सख्ती से अभियान चलाया जाना भी हो सकता
है। ऐसा लगता है कि पिछले कुछ समय से नक्सली शांत रहकर अपनी ताकत को बढ़ाने
में लगे थे। न केवल इस समय का उपयोग उन्होंने अपने कैडर में भर्ती के रूप
में किया बल्कि हथियारों का जखीरा भी इकट्ठा कर लिया- ये बड़ा सवाल है कि
इतने बड़े पैमाने पर इन नक्सलियों को आर्थिक मदद कहां से मिलती है? कहां से
वो अत्याधुनिक विदेशी हथियार जमा कर पाये? कैसे उन्हें तमाम आपूर्ति घने
जंगलों के बीच पहुंचती है?
अगर आप इन सवालों पर गौर करें तो लगेगा ये हमारे
शासन और खुफिया प्रणाली की घोर विफलता है कि हम एक सीमित क्षेत्र में
मौजूद नक्सलियों की गतिविधियों पर भी नजर नहीं रख पा रहे हैं। इसी विफलता
के चलते लाल आतंक का क्षेत्र फैलता चला जा रहा है। जो नक्सलवाद सत्तर के
दशक के आते आते बंगाल में दम तोड़ता लग रहा था वो अब दानवाकार रूप में
बंगाल, आसाम, आंध्र, उडीसा, झारखंड, बिहार,महाराष्ट्र,छत्तीसगढ़ और उत्तर
प्रदेश तक फैल चुका है। इसे राजनीतिक, प्रशासनिक और खुफिया तंत्र की घोर
विफलता ही कहेंगे और साथ में इनसे निपटने में दृढ इच्छाशक्ति का अभाव भी।
छत्तीसगढ़ में नक्सलियों का वर्चस्व मुख्य रूप से आदिवासी बहुल इलाकों
के जंगली क्षेत्रों में है। सच कहा जाये तो हमें सीमा पार दुश्मनों से
कहीं ज्यादा खतरा इस आंतरिक फलते फूलते आंतकवाद से है। शुरू में नक्सली
आंदोलन आदिवासियों की वन संपदा के अधिकारों को लेकर किया गया लगता था लेकिन
अब ये राष्ट्रविरोधी स्वरूप ले चुका है। आज नक्सली न केवल वन संपदा का
दोहन कर रहे हैं बल्कि हर तरह की आपराधिक गतिविधियों में लिप्त हैं। इनकी
हिंसा के तौर तरीकों को देखकर लगता है कि इनका नेतृत्व करने वाले घोर
मनोविकृतियों से भी ग्रस्त हैं। किसी भी सभ्य समाज के लोग हिंसा पर न तो
आनंद का उत्सव मना सकते हैं और न ही लोगों की बर्बर तरीके से हत्या कर सकते
हैं। विदेशी ताकतों से चोरी छिपे मिल रही मदद के अलावा कतिपय
बुद्धिजीवियों के समर्थन ने हमेशा उनके हौसलों को बढ़ाया है। ये बुद्धिजीवी
किस तरह से नक्सलियों के हिंसा के तौर-तरीकों का समर्थन कर सकते हैं और
इसे सही ठहरा सकते हैं कि नक्सली सही राह पर हैं और जो कुछ कर रहे हैं वो
जायज है। ताजा आंकड़े ये बताते हैं कि पिछले दो सालों में छत्तीसगढ़,
झारखंड, उड़ीसा और आंध्र प्रदेश में नक्सली कैडर में जमकर भर्तियां हुई
हैं, उनकी तादाद खासी बढ़ चुकी है।
मवाद जब गहरे पैठा हो तो शल्य क्रिया करनी ही पड़ती है। छोटे - मोटे
सुधारों और उपचार से अब इस विषबेल और रोग का समाधान नहीं हो सकता। सियासी
दलों पर दोषारोपण करने की बजाये ये कठोर कार्रवाई का समय है। अब निर्णायक
कदम उठाने का समय आ चुका है। हालांकि सियासी स्तर पर लोगों की आंख तब खुली
जब खुद राजनीतिक लोग हमले का शिकार बनने लगे हैं, तब उनमें एकजुटता आयी
और समस्या की गंभीरता के प्रति चिंता हुई।
जब नक्सली सुरक्षा बल के जवानों को मार रहे थे तब तक राजनीतिक वर्ग
वोट बैंक के हिसाब से गुणा-भाग और समीकरण बनाकर योजनाएं और नीतियां बना रहा
था। अब जब वो स्वयं भस्मासुर के शिकार बने तो नक्सलवाद की समस्या को लेकर
साथ मिलकर लडऩे का स्वांग कर रहे हैं। भारत को स्पष्ट समझ लेना चाहिए कि
शहीद जवानों के शवों में बम प्लांट करने वाले, स्कूलों, अस्पतालों और सडक़ों
को बारूदों से उडाऩे वाले, सरकारी और निजी उद्योगों से हफ्ता वसूली करने
वाले कभी राजनीतिक विचारक नहीं हो सकते और न ही इस देश को अपना समझते हैं।
इसे भारत के खिलाफ युद्ध के तौर पर ही देखना चाहिए न कि सिर्फ एक
राजनीतिक या आर्थिक समस्या के रूप में।
ये खुले तौर पर भारतीय राज्य
व्यवस्था और संप्रुभता को चुनौती है। इसमें कोई दो-राय नहीं है। बेशक
आदिवासी हितों की रक्षा होनी चाहिए। पिछड़े क्षेत्रों का विकास होना चाहिए।
जल, जंगल और जमीन से जुड़े अधिकारों को भी फिर से परिभाषित कर इसमें
स्पष्टता लाई जानी चाहिए लेकिन नक्सलियों के आगे समर्पण एक कमजोर राष्ट्र
का घुटने टेकने जैसा होगा। इसलिए जरूरत कठोर कार्रवाई की है न कि वादों, आश्वासनों और दिखावटी
कार्रवाइयों की। संघ और राज्य सरकार कोई भी हो, ऐसी लड़ाई में हारता भारत
ही है।
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