न्यायिक नियुक्ति आयोग पर विवाद
7 अप्रैल, 2015 को सर्वोच्च न्यायालय ने राश्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग के गठन पर रिट याचिका स्वीकार करते हुए इसे एक वृहद् संवैधानिक पीठ को सौंपने का निर्णय किया है। इससे फिर से न्यायाधीषों की नियुक्ति का विवाद सामने आ गया है। कानून और संविधान के जानकार फली. एस. नरीमन और पूर्व कानून मंत्री कपिल सिब्बल ने भी प्रस्तावित आयोग को न्यायपालिका की स्वतंत्रता तथा बुनियादी ढांचें के सिद्धान्त के विपरीत बताया था। 1993 में न्यायमूर्ति जे. एस. वर्मा की अध्यक्षता में 9-सदस्यीय संविधान पीठ ने यह निर्णय लिया था कि न्यायाधीषों की नियुक्ति में भारत के प्रधान न्यायाधीष का परामर्ष राश्ट्रपति पर बंधनकारी होगा तथा इसके पूर्व एस. पी. गुप्ता बनाम भारत संघ और एडवोकेट आॅन रिकाॅर्ड निर्णय में भी कुछ इसी तरह की राय व्यक्त की गयी थी, तभी से भारत में सर्वोच्च और उच्च न्यायालयों में न्यायाधीषों की नियुक्ति एक काॅलेजियम के परामर्ष से राश्ट्रपति के द्वारा की जाती रही है। विवाद इस बिन्दु पर रहा है कि प्रायः न्यायाधीषों ने नियुक्ति में अपने ही सगे-सम्बन्धियों को वरीयता दी तथा सरकार एवं कार्यपालिका का न्यायाधीषों की नियुक्ति में कोई भी हस्तक्षेप एवं भूमिका नहीं है जिसके कारण न्यायपालिका में न्यायाधीषों की नियुक्ति स्वयं न्यायाधीष ही करते रहे हैं जबकि अन्य देषों में जैसे कि अमेरिका में राश्ट्रपति सीनेट की स्वीकृति से, इंग्लैंड में न्यायिक नियुक्ति आयोग के द्वारा, कनाडा में प्रधानमंत्री और कानून मंत्री की सलाह से तथा आॅस्ट्रेलिया में न्यायिक नियुक्ति की सिफारिषें एटार्नी जनरल, गवर्नर जनरल को भेजते हैं और इस प्रकार न्यायाधीषों की नियुक्ति में एकमात्र अकेले न्यायपालिका की ही भूमिका नहीं है। अतीत में ऐसे कई अप्रिय विवाद भी हुए हैं जिसमें कि भारत में न्यायाधीषों की नियुक्ति पर उंगलियां उठीं एवं नियुक्तियों को संदिग्ध निश्ठा के आधार पर देखा गया। ऐसा ही एक मामला न्यायमूर्ति मार्कन्डेय काटजू ने कुछ महीनों पहले अपने एक लेख में उजागर किया था जब वे स्वयं मद्रास उच्च न्यायालय में बतौर मुख्य न्यायाधीष कार्य कर रहे थें।
न्यायपालिका को पूर्णतया किसी भी प्रकार के संदेह से परे होना चाहिए एवं स्वयं इस नवाचार की पहल करते हुए न्यायिक नियुक्तियों में षुचिता, पारदर्षिता और तटस्थता के सिद्धान्तों का अनुपालन करना चाहिए क्योंकि इससे न सिर्फ जनसाधारण में न्यायपालिका की गरिमा और प्रतिश्ठा बढ़ेगी बल्कि इस प्रकार के विवाद और आरोपों से भी वह बच सकेगी जिसमें कि न्यायिक नियुक्तियों में भाई-भतीजावाद या अन्य विवादों के आरोप लगते रहे हैं। पारित 99वें संविधान संषोधन, 2014 केे द्वारा अनुच्छेद 124 में परिवर्तन करते हुए जिस राश्ट्रीय नियुक्ति आयोग के गठन का प्रावधान किया गया है अब वह कानून ही न्यायिक समीक्षा के अधीन आ गया है और यह देखना होगा कि न्यायपालिका किस तरह से संतुलन साधते हुए न्यायिक नियुक्तियों की षुचिता और अपने प्रामाणिकता एवं स्वतंत्रता बनाये रख सकेगी।
--डाॅ. प्रत्यूश मणि त्रिपाठी,
निदेषक, वैद आईसीएस लखनऊ
7 अप्रैल, 2015 को सर्वोच्च न्यायालय ने राश्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग के गठन पर रिट याचिका स्वीकार करते हुए इसे एक वृहद् संवैधानिक पीठ को सौंपने का निर्णय किया है। इससे फिर से न्यायाधीषों की नियुक्ति का विवाद सामने आ गया है। कानून और संविधान के जानकार फली. एस. नरीमन और पूर्व कानून मंत्री कपिल सिब्बल ने भी प्रस्तावित आयोग को न्यायपालिका की स्वतंत्रता तथा बुनियादी ढांचें के सिद्धान्त के विपरीत बताया था। 1993 में न्यायमूर्ति जे. एस. वर्मा की अध्यक्षता में 9-सदस्यीय संविधान पीठ ने यह निर्णय लिया था कि न्यायाधीषों की नियुक्ति में भारत के प्रधान न्यायाधीष का परामर्ष राश्ट्रपति पर बंधनकारी होगा तथा इसके पूर्व एस. पी. गुप्ता बनाम भारत संघ और एडवोकेट आॅन रिकाॅर्ड निर्णय में भी कुछ इसी तरह की राय व्यक्त की गयी थी, तभी से भारत में सर्वोच्च और उच्च न्यायालयों में न्यायाधीषों की नियुक्ति एक काॅलेजियम के परामर्ष से राश्ट्रपति के द्वारा की जाती रही है। विवाद इस बिन्दु पर रहा है कि प्रायः न्यायाधीषों ने नियुक्ति में अपने ही सगे-सम्बन्धियों को वरीयता दी तथा सरकार एवं कार्यपालिका का न्यायाधीषों की नियुक्ति में कोई भी हस्तक्षेप एवं भूमिका नहीं है जिसके कारण न्यायपालिका में न्यायाधीषों की नियुक्ति स्वयं न्यायाधीष ही करते रहे हैं जबकि अन्य देषों में जैसे कि अमेरिका में राश्ट्रपति सीनेट की स्वीकृति से, इंग्लैंड में न्यायिक नियुक्ति आयोग के द्वारा, कनाडा में प्रधानमंत्री और कानून मंत्री की सलाह से तथा आॅस्ट्रेलिया में न्यायिक नियुक्ति की सिफारिषें एटार्नी जनरल, गवर्नर जनरल को भेजते हैं और इस प्रकार न्यायाधीषों की नियुक्ति में एकमात्र अकेले न्यायपालिका की ही भूमिका नहीं है। अतीत में ऐसे कई अप्रिय विवाद भी हुए हैं जिसमें कि भारत में न्यायाधीषों की नियुक्ति पर उंगलियां उठीं एवं नियुक्तियों को संदिग्ध निश्ठा के आधार पर देखा गया। ऐसा ही एक मामला न्यायमूर्ति मार्कन्डेय काटजू ने कुछ महीनों पहले अपने एक लेख में उजागर किया था जब वे स्वयं मद्रास उच्च न्यायालय में बतौर मुख्य न्यायाधीष कार्य कर रहे थें।
न्यायपालिका को पूर्णतया किसी भी प्रकार के संदेह से परे होना चाहिए एवं स्वयं इस नवाचार की पहल करते हुए न्यायिक नियुक्तियों में षुचिता, पारदर्षिता और तटस्थता के सिद्धान्तों का अनुपालन करना चाहिए क्योंकि इससे न सिर्फ जनसाधारण में न्यायपालिका की गरिमा और प्रतिश्ठा बढ़ेगी बल्कि इस प्रकार के विवाद और आरोपों से भी वह बच सकेगी जिसमें कि न्यायिक नियुक्तियों में भाई-भतीजावाद या अन्य विवादों के आरोप लगते रहे हैं। पारित 99वें संविधान संषोधन, 2014 केे द्वारा अनुच्छेद 124 में परिवर्तन करते हुए जिस राश्ट्रीय नियुक्ति आयोग के गठन का प्रावधान किया गया है अब वह कानून ही न्यायिक समीक्षा के अधीन आ गया है और यह देखना होगा कि न्यायपालिका किस तरह से संतुलन साधते हुए न्यायिक नियुक्तियों की षुचिता और अपने प्रामाणिकता एवं स्वतंत्रता बनाये रख सकेगी।
--डाॅ. प्रत्यूश मणि त्रिपाठी,
निदेषक, वैद आईसीएस लखनऊ
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